झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के केंद्रीय अध्यक्ष के रूप में हेमंत सोरेन की नियुक्ति को केवल सत्ता हस्तांतरण कहना राजनीतिक दृष्टिकोण की संकीर्णता होगी। यह झारखंडी जनचेतना के नेतृत्व का आधिकारिक स्वीकार है—एक ऐसा नेतृत्व जो जंगल, जमीन, और जल के अधिकार की नहीं, बल्कि आधुनिकता और आत्मनिर्भरता की खोज में लगी एक जनजातीय आत्मा का प्रतिनिधि है।
शिबू सोरेन से हेमंत सोरेन: विरासत का परिवर्तन नहीं, उसका विस्तार
शिबू सोरेन ‘दिशोम गुरु’ थे—उनका व्यक्तित्व संघर्ष का प्रतीक था। लेकिन हेमंत सोरेन उस संघर्ष की राजनीतिक भाषा को 21वीं सदी की नीति, योजना और संवाद में बदलते दिखते हैं। वह रैली के नायक नहीं, बल्कि प्रशासनिक रणनीति के वास्तुकार हैं। झारखंड के इतिहास में यह पहली बार है जब आंदोलनकारी चेतना और प्रशासकीय दृष्टि एक ही नेतृत्व में समाहित हो रही है।
पार्टी अध्यक्ष पद का निहितार्थ: कौन किसके अधीन है?
एक सवाल बहुत मौजूं है—क्या हेमंत अब पार्टी को चलाएंगे, या क्या पार्टी अब सत्ता को निर्देशित करेगी?
JMM अब तक सत्ता को आंदोलन के अनुसार ढालती रही है, लेकिन अब समय है कि संगठन खुद को सत्ता की जटिलताओं के अनुकूल तैयार करे—नीति निर्धारण, डेटा, तकनीकी न्याय और वैश्विक आदिवासी विमर्श के भीतर अपनी भूमिका खोजने का समय है।
हेमंत का चेहरा नहीं, कल्पना का संवाद
कल्पना सोरेन के उदय को केवल एक सहायक भूमिका मानना भूल होगी। वह आज के झारखंड की ‘बोलती आवाज़’ हैं—जहां महिलाएं केवल वोटर नहीं, नीति की सहभागी बन रही हैं। कल्पना का संप्रेषण, ग्रामीण महिलाओं और युवतियों को राज्य-नीति से जोड़ रहा है—यह संवाद राजनीतिक से ज़्यादा सांस्कृतिक है।
झारखंड अब सिर्फ झारखंड नहीं है
हेमंत सोरेन के नेतृत्व में JMM की राष्ट्रीय आकांक्षा केवल चुनावी विस्तार नहीं है, यह राष्ट्रीय विमर्श में ‘जनजातीय भारत’ को पुनर्स्थापित करने का प्रयास है। एक ऐसा भारत जो भारत के नक्शे में दिखता तो है, पर संविधान की धारा 5वीं अनुसूची में खो जाता है।
कहां से कहां? आगे का रास्ता
- क्या JMM एक ‘जनजातीय कांग्रेस’ बनकर खत्म होगा?
- या यह 21वीं सदी की पहली आदिवासी वैकल्पिक राजनीति गढ़ेगा?
- क्या यह सामाजिक न्याय के नाम पर बने ‘जंगल राज’ से खुद को अलग कर पाएगा?
- और सबसे महत्वपूर्ण: क्या यह ‘सत्ता में रहते हुए’ सत्ता के विरुद्ध बोलने का साहस रखेगा?
निष्कर्ष: यह नेतृत्व परिवर्तन नहीं, आत्मा का स्वरूप बदलने जैसा है
हेमंत सोरेन का अध्यक्ष बनना किसी राजवंश की परंपरा नहीं, यह आंदोलन से निकले राज्य के भीतर विचारधारा के जीवित रहने का प्रमाण है। झारखंड में अब जो राजनीति चलेगी, वह आदिवासी पहचान के बचाव की नहीं, उसे वैश्विक स्तर पर नेतृत्व देने की होनी चाहिए।