भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कई ऐसे अध्याय हैं, जिन्हें समय की धूल ने ढक दिया है। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण और कम ज्ञात अध्याय है ‘डोंबारी बुरु हत्याकांड’, जो 9 जनवरी, 1900 को झारखंड के खूंटी जिले में घटित हुआ था। यह घटना न केवल अंग्रेजी शासन के अत्याचारों का प्रमाण है, बल्कि आदिवासी समाज के साहस, संघर्ष और बलिदान की अमर गाथा भी है।
पृष्ठभूमि: बिरसा मुंडा और उलगुलान का आह्वान
19वीं सदी के उत्तरार्ध में, अंग्रेजों की भूमि नीतियों और शोषणकारी व्यवस्था ने झारखंड के आदिवासी समाज को उनके पारंपरिक जीवन से वंचित कर दिया था। साहूकारों, जमींदारों और मिशनरियों के बढ़ते प्रभाव ने आदिवासियों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संरचना को गहराई से प्रभावित किया। इसी परिप्रेक्ष्य में, बिरसा मुंडा का उदय हुआ, जिन्होंने अपने समाज को जागरूक करने और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए ‘उलगुलान’ (महान विद्रोह) का आह्वान किया।
बिरसा मुंडा ने अपने अनुयायियों से कहा: “अबूया राज एते जाना, महारानी राज टुडू जाना” (अर्थात, अब मुंडा राज शुरू हो गया है और महारानी का राज खत्म हो गया है)। उन्होंने आदिवासी समाज में सामाजिक सुधारों की शुरुआत की, जिसमें शराब सेवन, अंधविश्वास और धार्मिक अनुष्ठानों को समाप्त करने पर जोर दिया। उनका उद्देश्य आदिवासी समाज को एकजुट करना और उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना था।
डोंबारी बुरु: संघर्ष की भूमि
डोंबारी बुरु, खूंटी जिले के अड़की प्रखंड में स्थित एक पहाड़ी है, जो उलगुलान के दौरान बिरसा मुंडा और उनके अनुयायियों के संघर्ष का प्रमुख केंद्र बनी। 9 जनवरी, 1900 को, बिरसा मुंडा अपने 12 अनुयायियों के साथ यहां एक सभा कर रहे थे, जिसमें आसपास के दर्जनों गांवों के लोग, महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। इस सभा का उद्देश्य जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए लोगों को संगठित करना और अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह की रणनीति बनाना था।
अंग्रेजों का हमला और हत्याकांड
अंग्रेजी प्रशासन को इस सभा की सूचना मिलते ही, उन्होंने बिना किसी चेतावनी के डोंबारी बुरु को चारों ओर से घेर लिया। अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा को आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया, लेकिन बिरसा और उनके समर्थकों ने स्वतंत्रता और स्वाभिमान के लिए लड़ना उचित समझा। इसके बाद, अंग्रेजी सैनिकों ने निर्दोष आदिवासियों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। बिरसा मुंडा इस हमले से बच निकलने में सफल रहे, लेकिन यह घटना आदिवासी समाज के लिए एक गहरा आघात थी।
डोंबारी बुरु का ऐतिहासिक महत्व
डोंबारी बुरु न केवल उलगुलान का प्रतीक है, बल्कि यह स्थान आदिवासी समाज की वीरता, संघर्ष और बलिदान की कहानी कहता है। यहां की पहाड़ियां और जंगल आज भी उन वीर शहीदों की याद दिलाते हैं, जिन्होंने अपने अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। यह स्थान झारखंडी अस्मिता और संघर्ष की गवाह है, जहां से ‘अबुआ दिशुम, अबुआ राज’ (हमारा देश, हमारा शासन) का नारा गूंजा था।
स्मारक और वर्तमान स्थिति
पूर्व राज्यसभा सांसद और प्रसिद्ध आदिवासी विचारक डॉ. रामदयाल मुंडा ने डोंबारी बुरु पर एक विशाल स्तंभ का निर्माण कराया, जो सैकड़ों शहीदों की याद दिलाता है। यह स्तंभ उन वीर आदिवासियों के संघर्ष और बलिदान को अमर करता है, जिन्होंने अपने जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए अपनी जान न्योछावर कर दी। हालांकि, यह ऐतिहासिक स्थान आज भी उचित विकास और पहचान की बाट जोह रहा है। स्थानीय समुदाय और सरकार के संयुक्त प्रयासों से इस स्थल को पर्यटन और शिक्षा के केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है, ताकि आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वजों के संघर्ष और बलिदान से प्रेरणा ले सकें।
बिरसा मुंडा की विरासत
बिरसा मुंडा का जीवन और उनका संघर्ष आदिवासी समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उन्होंने अपने समाज को जागरूक किया, उन्हें संगठित किया और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। उनकी मृत्यु के बाद भी, उनका आंदोलन जारी रहा और अंततः 1908 में छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट के माध्यम से आदिवासियों की भूमि के अधिकारों की रक्षा की गई। आज भी, बिरसा मुंडा झारखंड और भारत के आदिवासी समाज के लिए एक महानायक हैं, जिनकी विरासत सदैव जीवित रहेगी।
निष्कर्ष
डोंबारी बुरु हत्याकांड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और झारखंड के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जो आदिवासी समाज की अदम्य साहसिकता और संघर्ष का प्रतीक है। यह घटना हमें याद दिलाती है कि स्वतंत्रता और अधिकारों की रक्षा के लिए किए गए बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाते। आज, हमें अपने इतिहास से सीख लेकर एक न्यायसंगत और समतामूलक समाज के निर्माण के लिए प्रयासरत रहना चाहिए, ताकि हमारे पूर्वजों के बलिदान को सच्ची श्रद्धांजलि