गोंड आदिवासियों का कछारगढ़ तीर्थ: सांस्कृतिक पुनरुत्थान और सामूहिक पहचान का प्रतीक

महाराष्ट्र के गोंदिया जिले में स्थित कछारगढ़, गोंड आदिवासियों के लिए न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि यह उनकी सांस्कृतिक पहचान और इतिहास का प्रतीक भी है। धानेगांव गांव की गुफाओं में देवी काली कंकाली का मंदिर स्थापित है, जो मैकल पहाड़ियों का हिस्सा हैं। गोंडी भाषा में कछारगढ़ का अर्थ है “अयस्क से भरपूर पहाड़ी”। यह स्थान महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सीमाओं पर स्थित है।

कछारगढ़ का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व

1980 के दशक में गोंड समुदाय में सांस्कृतिक जागरूकता के परिणामस्वरूप 1986 में कछारगढ़ गुफाओं में वार्षिक तीर्थयात्रा और मेले की शुरुआत हुई। इस आयोजन ने देवी काली कंकाली को गोंड समुदाय के लिए विशेष स्थान प्रदान किया। हर साल माघ पूर्णिमा के अवसर पर आयोजित चार दिवसीय तीर्थयात्रा में महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश से 20,000 से 30,000 तीर्थयात्री शामिल होते हैं।

काली कंकाली का मंदिर गोंड धर्म, जिसे ‘गोंडी पुनेम’ भी कहा जाता है, को संरक्षित और सशक्त बनाने का माध्यम है। गोंड आदिवासी अपने अनुष्ठानों और त्योहारों के माध्यम से अपनी पारंपरिक पहचान को पुनः प्राप्त कर रहे हैं और बाहरी हस्तक्षेपों का विरोध कर रहे हैं।

See also  First People: Custodians of Culture, Nature, and Resilience

काली कंकाली का मिथक और गोंड समाज

गोंड पौराणिक कथाओं में देवी काली कंकाली की कथा महत्वपूर्ण स्थान रखती है। एक प्रचलित कथा के अनुसार, काली कंकाली का जन्म चंद्रपुर के राजा यद्राहुद और रानी सोनादई के घर हुआ। जंगल के साथ उनके गहरे संबंधों के कारण उन्हें “काली” नाम दिया गया। उनके जीवन में आए घटनाक्रम और संघर्षों ने उन्हें गोंड समाज में विशेष स्थान दिलाया।

पौराणिक कथा के अनुसार, काली कंकाली ने 33 बच्चों को जन्म दिया, जिन्हें “सागा देव” कहा जाता है। ये बच्चे गोंड सभ्यता और संस्कृति के आधारभूत स्तंभ बने। कछारगढ़ की गुफा में इन बच्चों को बंदी बनाया गया था, और 12 वर्षों तक एक पौराणिक पक्षी के माध्यम से उनका भरण-पोषण हुआ। अंततः, गोंड गुरु लिंगो ने उन्हें मुक्त किया और गोंड संस्कृति में दीक्षित किया।

कछारगढ़ जात्रा: सांस्कृतिक पुनरुत्थान का प्रतीक

कछारगढ़ तीर्थयात्रा गोंड समुदाय की सामूहिक पहचान और संस्कृति को पुनर्जीवित करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम बन गई है। तीर्थयात्रा के दौरान लिंगो की वेशभूषा में बच्चे देवी काली कंकाली के मंदिर की ओर तीर्थयात्रियों का मार्गदर्शन करते हैं। यह आयोजन गोंड समाज को उनके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ता है।

See also  भारतीय संविधान सभा में आदिवासी प्रतिनिधियों की भूमिका: जानिए उनके योगदान और संघर्ष

इस मेले के माध्यम से गोंड आदिवासी अपनी पारंपरिक मान्यताओं और जीवनशैली को पुनः प्राप्त कर रहे हैं। यह आयोजन न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह गोंड समाज के राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों के लिए एक मंच भी बन गया है। जंगल, भाषा और शिक्षा जैसे मुद्दों पर चर्चा करने के लिए यहां जोरदार भाषण दिए जाते हैं।

काली कंकाली की पूजा का पुनरुत्थान और ऐतिहासिक संदर्भ

काली कंकाली की पूजा का पुनरुत्थान 1980 के दशक में गोंड सांस्कृतिक नेताओं द्वारा प्रेरित था। आयर चैटरटन द्वारा लिखित “द स्टोरी ऑफ गोंडवाना” (1916) ने कछारगढ़ की गुफाओं को पुनः खोजने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस ग्रंथ ने गोंड सांस्कृतिक नेताओं को उनके इतिहास के खोए हुए हिस्सों को पुनः प्राप्त करने में मदद की।

गोंड समुदाय का सांस्कृतिक और साहित्यिक योगदान

कछारगढ़ मेले में सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियां एक विशेष स्थान रखती हैं। विभिन्न आदिवासी समूह अपने पारंपरिक नृत्य और लोकगीत प्रस्तुत करते हैं। साथ ही, गोंडी भाषा और संस्कृति के प्रसार के लिए साहित्यिक पत्रिकाएं और पुस्तकें प्रकाशित की जाती हैं।

See also  अल्लूरी सीता राम राजू: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वीर योद्धा

निष्कर्ष

काली कंकाली का तीर्थस्थल और कछारगढ़ जात्रा गोंड समुदाय के लिए न केवल एक धार्मिक स्थान है, बल्कि यह उनकी सामूहिक स्मृति, पहचान और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक भी है। यह आयोजन गोंड समाज की समृद्ध परंपराओं को संरक्षित करने और उनके राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों की मांग को मजबूत करने का माध्यम बन चुका है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

10 most Expensive cities in the World धरती आबा बिरसा मुंडा के कथन