दरअसल ये आदिवासी-आदिवासियत और आदिवासी अस्तित्व की लड़ाई है या तो आप रोमन साम्राज्य के साथ हैं या संताल समाज के साथ. क्षणिक भर के लिए आप रोमन साम्राज्य से प्रभावित हो सकते हैं लेकिन सभ्यता की लड़ाई में आपको ओलचिकी और संताली भाषा का कम से कम — 500/ 1000 साल का भविष्य का इतिहास भी दिखना चाहिए और ऐसी स्थिति में आप कौन सा पक्ष लेते हैं ये भी आपके आदिवासी-आदिवासियत या इसके न होने, पर भी निर्भर करता है
मुझे संताली भाषा नहीं आती है. हमेशा नयी चीजें सीखना और पढ़ना चाहता हूँ शायद संताली भी सीख लूँ लेकिन निकट भविष्य में नहीं लगता है. क्योंकि मुझे भाषा नहीं आती है, इसलिए इसके वैज्ञानिकता और टेक्निकल डिटेल पर नहीं जाऊंगा और कुछ बिंदुवार बातों को लिखना चाहूँगा.
आदिवासी समाज बड़ी मुश्किल से कोई नयी चीज खोजने की कोशिश करता है, संसाधनों के अभाव के बारे में ज्यादा बोलने की जरुरत नहीं है. जब बच्चा पैदा होता है तो ये नहीं देखा जाता है कि अच्छा बच्चा पैदा हुआ है या ख़राब — माँ बाप ये सोचते हैं की उसे बेहतर बच्चा कैसे बनाया जा सकता है. मान लेते हैं संताली भाषा की ओलचिकी लिपि 100 साल की है. 100 साल पहले अंग्रेजों से लड़ना, मिशनरियों से लड़ना, और आरएसएस के पदार्पण से आने वाले भविष्य की चुनौतियों से लड़ते हुए रघुनाथ मुर्मू जी द्वारा ओलचिकी लिपि का निर्माण अपने आप में बहुत बड़ा आंदोलन है. इससे हरेक संताल को फ़क्र होना चाहिए. अपने पूर्वज के प्रयत्न को और बेहतर बनाना चाहिए. ओलचिकी का इस्तेमाल करते हुए भरपूर इतिहास और साहित्य का लेखन करना चाहिए. सभी आदिवासी, खासकर संताल को अपने आप से पूछना चाहिए, हमने नया क्या किया है या क्या बनाया है? कितने संताल ओलचिकी से इतिहास और साहित्य लेखन कर रहे हैं कितने इसके वैज्ञानिकता के दृष्टिकोण से लिपि का मानकीकरण कर रहे हैं? Think About it.
यहाँ पर मुद्दा आता है, “सुविधाजनक (Convinient) लेखन और “सुविधाजनक” लेखक का. कैसे?
अभी के समय में लेखक ये देखने की कोशिश करता है कि कौन सी ऐसी भाषा या लिपि और मशीन टूल्स है जिससे हम चीजों को आसानी से सीख सकते हैं, पैसे कमा सकते हैं, लेखक पाठक शायद ही देखते हैं की किसने लिखा है और क्या लिखा, किसलिए लिखा है, कब लिखा है, और क्यों लिखा है? मतलब जो चीज व्यक्ति बचपन से सीख पढ़ रहा है वही उसके जीवन का हिस्सा, और अर्थ (Economy) भी होता है, बहुत कम ही लोग हर रोज नए प्रयोग करने की कोशिश करते हैं. ओलचिकी को समझना, मानकीकरण करना संताल समाज का लक्ष्य होना चाहिए। रोमन लिपि के आधिपत्य, शोषण, और शासन की भाषा कौन नहीं सीखना चाहता है, पूरी दुनिया सीख रहा है, लेकिन आप ओलचिकी सिर्फ इसलिए नकार रहे हैं की रोमन आप बहुत पहले से सीख रहे हैं, आपकी समझ मजबूत हुई है, बॉडिंग जैसे लोगों ने लेखन किया है वहाँ से आप अपने संताल विरासत को धनी समझ रहे हैं, और कभी भी रोमन लिपि से बाहर नहीं निकलना चाहते हैं तो एक तरीके से आदिवासी-आदिवासियत का विस्तार कभी संभव नहीं है. “सुविधाजनक लेखक” आपलोगों को समझ में आ गया होगा। भाई इंडिजिनस तरीका इंडिजिनस तरीका होता है, जबतक आप अन्वेषण और उसका विन्यास नहीं करते हैं, स्वाधीनता और आदिवासियत के सपने देखना तो भूल जाएँ, ठाकुर की गुलामी ही अच्छी लगेगी.
दूसरी बड़ी समस्या है, “सुविधाजनक लेखन”. आज के ज्यादातर लेखक के लेखन में अनावश्यक क्लिष्ट भाषा नजर आएगी, या फिर शब्द ऐसे पिरोये होंगे जिससे की उसका खूँटा निश्चित हों, लेखन से किसी को चोट न लगे लेकिन किताब की किताब पोथियाँ जमा होती रहेंगी. खूंटे में बंधे रहकर सृजनात्मक और बदलाव का लेखन संभव नहीं है और किसी के मन दिल को न झंझोड़ने वाले शब्दों को कहीं भी पिरो लें क्या फर्क पड़ता है. संताली भाषा ओलचिकी के बहाने साथी लोग, सिद्धो-कान्हू मुर्मू के आंदोलन, सेक्युलरिज्म और एकता की चर्चा भी कर रहे हैं. सभी बिंदुओं पर यहाँ लिखना संभा नहीं है लेकिन कुछ सवाल हैं — क्या आधुनिक संसाधन विहीन आदिवासी समाज विश्व के सबसे संगठित धर्मों के समकक्ष अपने साम्राज्य को खड़ा कर पायेगा? क्या ऐसा नहीं है की आदिवासी समाज, धर्म (मेरी समझ आध्यात्मिकता से ज्यादा है) के मामले में निहथा है और “सुविधाजनक लेखन, लेखक, और आंदोलनकारी” अनचाहे-अनचाहे ब्रिटिश और मिशनरियों के विरासत के पक्ष में ही लिखता, बोलता, आंदोलित नहीं है? निहथा का मतलब है, आदिवासी समाज के पास अन्य संगठित धर्म की तरह लिखित कोड बुक नहीं है, कितने ही महादेशों से लुटे हुए धन नहीं हैं. निहथा का अर्थ है आदिवासी समाज के पास जो है प्रकृति है, नदी है, पर्वत है इत्यादि, क्या ऐसे समुदाय पर दुनिया का सबसे संठित धर्में अपने धर्म को ले जाकर — आदिवासी समाज के बीच में लड़ाई का मैदान नहीं बना रहे हैं? जिससे की ये अपने मारंगबरु और धर्मेस बाजार बना सके. मेरा ये दृष्टिकोण कतई नहीं है कि आदिवासी समझ भी अन्य संगठित धर्म के तरह अपने ईश्वर और ग्रंथों का बाजारीकरण करे, लेकिन हकीकत भी यही है की झारखण्ड और पड़ोसी राज्यों के आदिवासी इसी बाजार से वास्तव में जर्जर हो चुके हैं लेकिन अपने आप को समझते हैं विकसित. क्या जीशु-जाहेर एक हैं, जैसे की स्कूल खुल रहे हैं, क्या किसी भी संताल के सेक्युलरिज्म पर इस थोपन पर चोट नहीं लगी? ईसाई मिशनरी के गुण अगर गाओ तो आप सेक्युलर हैं, अगर आप आलोचना करो तो संघी है. अगर ऐसा है तो आपको खुद अपने सेक्युलरिज्म की समझ मजबूत करने की जरुरत है अन्यथा आप सिकुलर हैं. ओलचिकी के और संताली भाषा के बहस में बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों के जिन्न भी निकल आये लेकिन ‘मरांग बुरु शैतान’ वाले गाने पर चूं तक न किया भाई तो ऐसा है इनका सेक्युलरिज्म.
(… लेख जारी है)
गनेश मांझी(लेखक के निजी विचार)