मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने रविवार को दीपावली के अवसर पर गोरखपुर में 153 करोड़ रुपये की 52 विकास परियोजनाओं का लोकार्पण तथा शिलान्यास किया।
इस अवसर पर मुख्यमंत्री ने स्वयं की ओर से डाली गई डेढ़ दशक पूर्व की परम्परा को कायम रखते हुए वनटांगिया समाज के संग दीपावली मनाई। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि सकारात्मक भाव से किया गया कोई भी संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता है। वनटांगिया समाज के लिए इसी भाव से संघर्ष किया गया था और आज यह सार्थक रूप में दिख रहा है। वंचितों को शासन की सभी सुविधाएं व नागरिक अधिकार मिलना ही सही मायने में दीपावली और रामराज्य जैसा है। उन्होंने कहा कि वनटांगिया गांव में गरीबों के पक्के मकान, पेयजल की सुविधा, बिजली, अच्छे विद्यालय और आंगनबाड़ी केंद्र देखकर उन्हें बेहद प्रसन्नता होती है।
उन्होने कहा कि कल अयोध्या के भव्य दीपोत्सव को सभी ने देखा। जैसे अयोध्या सज संवर रही है, वैसे ही उत्तर प्रदेश, गोरखपुर और वनटांगिया गांव भी सज संवर रहे हैं। दीपावली का पावन पर्व अंधकार से प्रकाश की ओर, बुराई से अच्छाई, अधर्म से धर्म, नकारात्मकता से सकारात्मकता, अन्याय से न्याय और अकर्मण्यता से कर्मशीलता की ओर ले जाने की प्रेरणा प्रदान करता है।
कहाँ है वनटांगियो की बस्ती
उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में एक प्रमुख शहर है गोरखपुर। प्राचीन काल से ऐतिहासिक अहमियत वाला यह शहर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गृह जनपद भी है। साथ ही मुख्यमंत्री जिस नाथ पंथ से संबधित हैं उसका मुख्यालय माना जाने वाला गोरखनाथ मंदिर एवं मठ भी यहीं स्थित है। योगी इस मठ के पीठाधीश्वर भी हैं।
गोरखपुर से ही लगे कुसम्ही जंगल हैं। इसी में स्थित है वनटांगिया बस्ती ‘जंगल तिकोनिया नम्बर तीन’ पिछले कई वर्षों से योगी के दीपावली की शुरुआत इसी गांव से होती है।
2009 में पहली बार बस्ती में योगी ने मनाई दिवाली : वर्ष 2009 से बतौर गोरखपुर के सांसद योगी का दीपावली के दिन यहां की वनटांगिया बस्ती में जाना शुरू हुआ। उसके बाद आम लोगों को इस बस्ती के बारे में पता चला। उस समय तक इनकी बस्तियों को राजस्व गांव का दर्जा तक नहीं हासिल था। इनको मतदान का भी अधिकार भी नहीं था। एक तरीके से यह आजाद भारत के गुलाम नागरिक थे। वोट देने का अधिकार नहीं होने से किसी जनप्रतिनिधियों को इनकी फिक्र भी नहीं थी। वन विभाग के नियमानुसार वे वहां किसी तरह का स्थाई निर्माण भी नहीं करा सकते थे। लिहाजा घास-फूस की झोपड़ियों में रहना इनकी विवशता थी। समय-समय पर विभागीय उत्पीड़न अलग से।
कौन है वनटांगिए समुदाय, क्या थी उनकी स्थिति
टांगिया गॉवों की उत्पत्ति बर्मा में उन्नीसवीं सदी के मध्य में हुई, टांगिया शब्द बर्मीइस शब्द है और वनों को पुनः उगाने के तरीके के लिए व पहाड़ों पर अल्पकालिक खेती के लिए इस्तेमाल किया जाता है. भारत में टांगियां पद्धति की शुरुआत सन् 1920 के आसपास हुई. युरोप के जंगलों का सफाया करने के बाद बरतानिया हुकूमत को जब उस समय उद्योग, कारखानों को लगाने के लिये व कच्चे माल की पूर्ति करने के लिए व्यवसायिक लकड़ी की भारी ज़रूरत पड़ी और उन्हें भारत के भी ख़त्म होते जा रहे जंगलों को देख कर चिन्ता हुई. इसका जिक्र नैनीताल में हुई पहली टांगियां कान्फ्रेंस के दस्तावेजों में भी मिलता है. जिसमें लिखा है, कि टांगिया पद्धति से जंगल उगाने के लिये मज़दूरों को वनों के आस-पास बसने वाले गॉवां से लाया जाए. इसके लिये ज्यादहतर मज़दूर जिन गॉवों से लाए गए वहां वे मुख्यतः या तो भूमिहीन थे या फिर जमींदारों व बड़े काश्तकारों की ज़मीनों पर बेगारी करते थे.
क्या है वनटांगिए पद्दति का इतिहास
वर्ष 1853 से देश में रेलवे पटरियां बिछाई जाने लगीं थीं. रेल पटरियों के लिए स्लीपर की मांग काफी बढ़ गई थी. 1878 तक रेल लाइन बिछाने के लिए 20 लाख से अधिक कुंदों का प्रयोग हो चुका था. इसके अलावा रेल इंजनों में जलावन के रूप में लकड़ी का प्रयोग भी होता था.’ वन विभाग के 1882-83 की वर्षिक रिपोर्ट में जिक्र है कि ‘विभाग ने दो रुपये चार आना से लेकर दो रुपये छह आना प्रति स्लीपर की दर से पटना-बहराइच रेल लाइन की लिए लकड़ी आपूर्ति का ठेका दिया था.’ 1860 से 1890 के बीच यह नीति लाई गई कि जंगल साफ करने से अच्छा है कि इनका इस तरह से विकास किया जाए कि नियमित रूप से इमारती लकड़ी मिलती रहे. सखुआ और सागौन के जंगल तैयार करने के लिए अंग्रेजों को बड़ी संख्या में मजदूरों की जरूरत थी. अंग्रेजों ने मुनादी कर मजदूरों को जंगल तैयार करने के लिए बुलाया. जमींदारी और जातीय उत्पीड़न से त्रस्त्र भूमिहीन अति पिछड़ी व दलित जाति के मजदूर जंगल में साखूआ-सागौन के पौधे रोपने के लिए चले आए. उन्हें गांवों से जंगल की तरफ पलायन उत्पीड़न से मुक्ति का मार्ग लगा लेकिन यहां आने के बाद वे अंग्रेजों हुकूमत के बंधुआ मजदूर हो गए.