बीस बरस की काली रात, आदिवासियों का खोता हुआ भविष्य: कार्तिक उरांव

बीसवीं सदी में आदिवासी समाज की स्थिति और अधिकारों पर बहस ने भारतीय राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को प्रभावित किया। डॉ. कार्तिक उरांव जैसे समाज सुधारकों ने इस मुद्दे को लेकर गंभीर विचार किए। उन्होंने स्पष्ट रूप से बताया कि कैसे आदिवासी समाज परिवर्तन के दौर में भी अपनी पहचान, अधिकार और संस्कृति से वंचित होता चला गया। उनकी “किताब बीस बरस की काली रात” में आदिवासियों के अतीत, वर्तमान और भविष्य को वर्गीकृत कर, इस समुदाय की चुनौतियों और संघर्षों को उजागर किया गया है।

डॉ कार्तिक उरांव का कहना था कि भारत में कई परिवर्तन हुए और परिवर्तन का दौर जारी है किन्तु आदिवासियों में तनिक भी परिवर्तन नही हुए, बल्कि इतना ही परिवर्तन हुआ, जिसमें आदिवासियों ने अपने पास जो था वह भी खो दिया, पाया कुछ नही। कार्तिक उरांव हरिजनों(दलितों) को लेकर कहते हैं कि हरिजनो के बीच बड़े नेता हुए। जैसे डॉ. भीमराव अंबेडकर, श्री जगजीवन राम आदि उन्होने भारतीय मंत्रीमंडल में रहकर हरिजनों के विकास में जो भी बाधाएं आयी उनको दूर किया। हरिजनो की आवाज बुलंद की और उनमें आशा का संचार किया। इसके अलावा भी हरिजनों, मुसलमानों, सिक्खो एवं इसाईयों का प्रतिनिधित्व भारतीय मंत्रीमंडल में प्रर्याप्त और उचित थे। किंतु वहां आदिवासियों के लिए कोई औचित्य या मानवता नही दिखलाई पड़ती है।

अपने किताब में आदिवासियों की परिस्थिति को समझाने के लिए तीन हिस्सों में बाटते है 1. आदिवासी कल (1950 से पहले), 2.आदिवासी आज (1950 के बाद), 3.आदिवासी कल (1970 के बाद), पहले अध्याय (आदिवासी बीता कल) में डॉ कार्तिक उरांव बताते हैं कि आदिवासी कौन है? उनका धर्म क्या है? अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातियों के आयुक्त रहे डॉ वेरियर एलविन, श्री यु. एन. वेबर व लक्ष्मीदास की आलोचना करते हुए कहते हैं कि इन्होने जनजाति(आदिवासी) की कल्याण की भावना को ही त्याग दिया था इसलिए जनजातियों की परिभाषा नही दी।

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कार्तिक उरांव के अनुसार “ 1911 की जनसंख्या रिपोर्ट में अच्छी तरह से विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है कि जनजाति कौन है और उसका धर्म क्या है? उसमें यह कहा गया है “Animism” उनका विश्वास है और धर्म भी और दूनियाँ में आदिवासियों के बीच होते सभी प्रकार के अंध विश्वासों पर आधारित है उनका धार्मिक विश्वास कुछ अस्पस्ट है लेकिन सभी जंगलों, पहाड़ो, कुंओ और नदियों में वास करने वाले देवी – देवताओं पर विश्वास करते है और आदि देवी देवताओं पर बकरी एवं मुर्गें आदि की भी बलि चढ़ाते है। खेती अच्छी हो इसके लिए भी देवी देवताओं की पूजा होती है। संक्षिप्त में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि वे उस धर्म को मानते है जो भारत में हिंदू धर्म के पहले थे। ”

भारत सरकार के अधिनियम 1935 का हवाला देते हुए लिखते है कि इस अधिनियम के अनुसार भारत के संयुक्त विधानसभा में सिक्ख, एंग्लो-इंडियन, मुसलमान, यूरोपिय, भारतीय इसाई, उद्योग और व्यापार संबंधित, जमीदार, श्रम संबंधित, अनुसूचित जातियों, पिछड़े वर्ग और पिछड़े जनजातियों के लिए स्थान सुरक्षित थे।

इसमें डॉ कार्तिक उरांव भारतीय ईसाई कि परिभाषा देते हुए कहते है कि भारतीय इसाई वो है जो किसी भी प्रकार के ईसाई धर्म को मानते हैं और जो एंग्लो-इंडियन और युरोपियन नही है। इसमें आगे कहते हैं कि जनजातिय इसाई न तो एंग्लो-इंडियन है और न ही युरोपियन। और वे भी भारतीय ईसाई निर्वाचन क्षेत्रों से भारत के विधान सभाओं में 1952 तक प्रतिनिधित्व कर चुके है। जनगणना का रेफरेंस देते हुए लिखते है कि 1911 में आदिवासियों को “अध्यात्मवाद” (Animism), 1931 में “आदिम जनजाति” (Tribal Religion), 1935 GOI Act में पिछड़ी जनजाति, भारत सरकार (अनुसुचित जाति) आदेश 1956 के अधिन कुछ राज्यों में अनुसुचित जाति के रूप में, भारत स्वधीनता अधिनियम 1947 में पिछड़ी जनजाति व भारतीय संविधान के द्वारा 1950 में अनुसुचित जनजाति के रूप में लिस्ट किया गया था।

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1911 की जनगणना में आदिवासियों का धर्म या विश्वास अध्यात्मवादी (Animism) के रूप में था और वहीं 1931 में आदिम जनजाति धर्म (Tribal Religion)। जनजाति को छोड़कर जिसने भी धर्म परिवर्तन कर लिया, उनकी गिनती बराबर से भारतीय इसाई में होती रही थी और उसने विशेषाधिकारों का फाएदा भी उठाया था तथा 1952 तक भारतीय क्रिशचियन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व भी किया।

27 अगस्त 1947 को सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में गठित सलाहकार समिति ने संविधान सभा में अल्पसंख्यकों का वर्गीकरण पर एक रिपोर्ट पेश की थी । जिसे तीन वर्गों में बांटा गया था – क. 1) एंग्लो-इंडियन, 2) पारसी, 3) असम के मैदानी भाग की जनजातियां, ख. 1) इंडियन क्रिश्चियन, सिक्ख, ग. 1) मुस्लिम, 2) अनुसुचित जाति। बहुत तर्क वितर्क के बाद भारतीय इसाईयों व मुसलमानों ने आजाद भारत में सुरक्षा का अधिकार छोड़ दिया था। यह बाद में हरिजनो के लिए भी आयी किंतु अंबेडकर ने संभाल लिया।

डॉ. भीम राव अंबेडकर ने कहा था कि “मैं जानता हूँ कि मुसलमान लोगों को 1862 ई. से सुरक्षा की सुविधा मिलती रही है और करीब-करीब 60 वर्षों तक सुविधा लेते रहे। ईसाईयों के लिए 1920 के संविधान में शुरू हुई और उनलोगों ने 28 वर्षों तक सुविधाओं का उपयोग किया, हरिजनो को 1935 से कुछ सुविधाएं मिल रही है और वह भी थोड़े वर्षों के लिए अत: हरिजनों की सुविधा जारी रहनी चाहिए” ठक्कर बप्पा के सवाल पर कि उन आदिवासियों के लिए क्या करने जा रहे है जो सबसे पिछड़े है। इस पर डॉ अंबेडकर ने कहा कि “मैं अनुसूचित जनजातियों के लिए तो और अधिक समय के लिए सुरक्षा देने के लिए तैयार हूँ।” इससे पहले अनुसूचित जनजाति नाम की कोई चीज नही थी। सर्व प्रथम 1950 में अनुसूचित जनजातियों की सुरक्षा और सुविधा के लिए आजाद भारत के मानचित्र में अनुसूचित जनजाति आयी। सलाहकार समिति (संविधान सभा) 11 मई 1946 की बैठक में अनुसूचित जाति को छोड़कर अल्पसंख्यको के लिए विधानमंडलों में आरक्षण की प्रथा खत्म हो, इस पर सहमति बनी।

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दूसरी अध्याय में आज की जनजाति (1950 से 70) में डॉ. कार्तिक उरांव कहते हैं कि संविधान (अनुसूचित जनजाति) अधिनियम, 1950 धारा 342 में अनुसूचित जनजाति की परिभाषा “जनजाति अथवा जनजाति समुदायों के कुछ भाग अथवा गिरोह” अनुसूचित जनजातियों के संबंध में जनजातियों का धर्म 1931 के जनगणना के आधार पर आदि धर्म ही माना गया जो भारत के स्वीकृत किसी भी धर्म में नही आता है। 342 धारा अंतर्गत आदि धर्म का उल्लेख करना जरूरी नही समझा गया। जनजाति शब्द से ही आदि धर्म का बोध होता है। ऐसा कोई भी संशोधन या विधेयक नहीं है जिसके द्वारा भारतीय ईसाईयों को अनुसूचित जनजाति में परिभाषित किया गया हो। अत: इसाईयों को अनुसूचित जनजाति में परिभाषित कर उन्हें सारी सुविधाएं देना असंवैधानिक है। बहुत सी जनजातियां है जो अनुसूचित नही है।

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