मानगढ़ धाम
मानगढ़ धाम राजस्थान के बांसवाड़ा जिले में स्थित एक ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल है, जो भील आदिवासियों के साहस और बलिदान का प्रतीक है। इसे “आदिवासियों का जलियांवाला बाग” भी कहा जाता है। मानगढ़ धाम का इतिहास 20वीं शताब्दी की शुरुआत में औपनिवेशिक शासन के दौरान हुए आदिवासी विद्रोह और उनके धार्मिक गुरु गोविंद गुरु के नेतृत्व से जुड़ा है।
गोविंद गुरु और भील आंदोलन
गोविंद गुरु का जन्म 1858 में डूंगरपुर जिले के बांसिया गांव में हुआ था। वे भील समुदाय के बीच शिक्षा, सामाजिक सुधार और स्वतंत्रता की भावना फैलाने वाले एक प्रमुख नेता थे। गोविंद गुरु ने आदिवासियों को शराब छोड़ने, साफ-सफाई रखने और अन्य सामाजिक बुराइयों से बचने की प्रेरणा दी। उन्होंने “भगत आंदोलन” की शुरुआत की, जो एक धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन था। यह आंदोलन ब्रिटिश शासन और स्थानीय जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ आदिवासियों को संगठित करने का माध्यम बन गया।
1913 का विद्रोह और नरसंहार
1913 में गोविंद गुरु ने भील आदिवासियों को एकत्रित करने के लिए मानगढ़ की पहाड़ी को चुना। यह स्थान धार्मिक और सामुदायिक आयोजनों का केंद्र बन गया। हजारों आदिवासी, ब्रिटिश सरकार के दमन और शोषण के खिलाफ विद्रोह का हिस्सा बनने के लिए यहां एकत्रित हुए।
ब्रिटिश अधिकारियों ने इस सभा को गैरकानूनी घोषित कर दिया और इसे तितर-बितर करने के लिए चेतावनी दी। 17 नवंबर 1913 को, जब आदिवासी अपनी मांगों पर अडिग रहे, तो ब्रिटिश सेना ने उन पर गोलियां चला दीं। इस भीषण नरसंहार में 1,500 से अधिक आदिवासी मारे गए।
मानगढ़ धाम का महत्व
आज मानगढ़ धाम शहीदों की स्मृति में एक पवित्र स्थल है। यहां एक स्मारक स्थापित किया गया है जो उन आदिवासियों के बलिदान को याद दिलाता है जिन्होंने अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए प्राण न्योछावर कर दिए। यह स्थल न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र है बल्कि आदिवासी इतिहास और उनके संघर्ष की जीवंत कहानी भी सुनाता है।
आधुनिक पहल
मानगढ़ धाम को अब एक राष्ट्रीय स्मारक के रूप में विकसित किया जा रहा है। इसे राजस्थान, गुजरात, और मध्य प्रदेश के आदिवासी समुदायों का सांस्कृतिक केंद्र माना जाता है। भारतीय सरकार ने इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने के प्रयास किए हैं, ताकि इसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्ता को व्यापक रूप से प्रचारित किया जा सके।
मानगढ़ धाम का इतिहास हमें यह सिखाता है कि आदिवासी समुदायों ने न केवल अपनी संस्कृति और परंपराओं को बनाए रखा बल्कि औपनिवेशिक दमन के खिलाफ संगठित होकर अपनी स्वतंत्रता के लिए अदम्य साहस का प्रदर्शन किया।