तेलंगा खड़िया: अन्याय के खिलाफ संघर्ष की अमर गाथा

एक समय था जब सूदखोरों द्वारा आदिवासियों की जमीन हड़प ली जाती थी, और उन्हें अपनी ही भूमि पर बंधुआ मजदूर बना दिया जाता था।

संघर्ष की यह कहानी बहुत पुरानी है—तब भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ी जा रही थी, और आज भी वही जंग जारी है। जब हम संसाधनों की बात करते हैं, तो केवल जमीन ही नहीं, बल्कि भाषा, संस्कृति, धर्म, प्रशासनिक व्यवस्था, नृत्य-गीत, संगीत आदि भी इसमें शामिल होते हैं। विश्वभर में समाज इन्हीं आदान-प्रदान की प्रक्रियाओं से जुड़ा हुआ है। हमारी लड़ाई बेवजह नहीं होती—यह हमारी पहचान और अस्तित्व की रक्षा के लिए होती है। आइए, ऐसे ही एक महान आदिवासी वीर नायक अमर बलिदानी तेलंगा खड़िया को याद करें।

तेलंगा खड़िया का जीवन परिचय

तेलंगा खड़िया का जन्म 9 फरवरी 1806 को छोटानागपुर के मुरगु गांव में हुआ था। उनके पिता ठुइया खड़िया और माता पेटी खड़िया थीं। उनका विवाह रतनी खड़िया से हुआ। बचपन से ही वे बहादुर, ईमानदार और वाकपटु थे। उनका मुख्य पेशा खेती-बाड़ी और पशुपालन था। उनके पिता नागवंशी राजाओं के अधीन कार्य करते थे, जिससे तेलंगा को राजदरबार के वाद-विवादों को करीब से देखने का अवसर मिला। इसी कारण उनकी रुचि सामाजिक और राजनीतिक विषयों में बढ़ी।

See also  Tribal Leaders Urge Government to Prioritize Community Forest Rights in Kerala

आदिवासी स्वशासन और ब्रिटिश हस्तक्षेप

छोटानागपुर में आदिवासियों की अपनी “पड़हा व्यवस्था” थी, जो स्वायत्त शासन की प्रणाली थी और बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त थी। लेकिन 1850 के दशक में ब्रिटिश शासन ने इस प्रणाली को तोड़ना शुरू कर दिया। अंग्रेजों ने मालगुजारी कर (भूमि कर) थोप दिया, और कर न चुका पाने की स्थिति में आदिवासियों की जमीनें हड़प ली गईं। अंग्रेजों के एजेंट—साहूकार और ज़मींदार—इस शोषण में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। ग्रामीण समाज भारी कर्ज़ के बोझ तले दबता जा रहा था।

तेलंगा खड़िया का संघर्ष

तेलंगा खड़िया इस अन्याय को सहन नहीं कर सके और साहूकारों और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जनजागरण शुरू किया। उन्होंने ब्रिटिश शासन के समानांतर न्यायिक पंचायत प्रणाली को पुनर्जीवित किया, जिसमें 13 पंचायतें थीं। ये पंचायतें सिसई, गुमला, बसिया, सिमडेगा, कुम्हारी, कोलेबिरा, चैनपुर, बानो आदि क्षेत्रों में सक्रिय थीं।

तेलंगा खड़िया ने अपने योद्धाओं को अखरा में प्रशिक्षित किया, जहां तलवार, तीर-धनुष जैसे पारंपरिक हथियारों की शिक्षा दी जाती थी। उन्होंने गुरिल्ला युद्ध की तकनीक अपनाई और ब्रिटिश संस्थानों, साहूकारों और सरकारी अधिकारियों को निशाना बनाना शुरू किया। 1850-60 के दशक में उनका आंदोलन चरम पर था, जिससे ब्रिटिश सरकार चिंतित हो गई।

See also  मणिपुर हिंसा पर मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने मांगी माफी

तेलंगा खड़िया की गिरफ्तारी और बलिदान

तेलंगा खड़िया की गतिविधियों की सूचना अंग्रेजों और उनके समर्थकों को मिल गई। साहूकारों ने ब्रिटिश प्रशासन को एक न्यायिक पंचायत की बैठक की सूचना दी, जिसके बाद तेलंगा खड़िया को गिरफ्तार कर लिया गया। पहले उन्हें लोहरदगा जेल और फिर कलकत्ता जेल भेजा गया।

जेल से रिहा होने के बाद तेलंगा खड़िया ने अपने सैन्य संगठन को पुनः संगठित किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष को और तेज कर दिया। अंग्रेज अब उन्हें खत्म करने की योजना बनाने लगे। एक दिन, जब वे अपने साथियों को युद्ध प्रशिक्षण दे रहे थे, तब ब्रिटिश समर्थक बोधन सिंह ने उन पर गोली चला दी। वे मौके पर गिर पड़े। उनके समर्थकों ने उनका पार्थिव शरीर जंगल में ले जाकर गुप्त रूप से दफनाया।

आज, झारखंड के गुमला जिले के सोसो गांव में उनका स्मारक “तेलंगा टांड” के नाम से जाना जाता है।

See also  कैसी सामूहिक विवाह जिसमें शामिल सभी जोड़े पहले से शादीशुदा?

तेलंगा खड़िया की विरासत

तेलंगा खड़िया ने जिस साहस, संगठन और नेतृत्व का परिचय दिया, वह आज भी आदिवासी संघर्षों के लिए प्रेरणास्रोत है। उन्होंने दिखाया कि न्याय और स्वतंत्रता के लिए संगठित होकर लड़ना जरूरी है। उनका बलिदान केवल अतीत की गाथा नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य के संघर्षों के लिए एक सीख है।

तेलंगा खड़िया अमर रहें!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

10 most Expensive cities in the World धरती आबा बिरसा मुंडा के कथन