भारत में बड़े बांधों के खिलाफ हुए जन आंदोलनों में कोइल कारो आंदोलन एक ऐतिहासिक संघर्ष के रूप में जाना जाता है। यह आंदोलन झारखंड के खूंटी और गुमला जिलों के उन हजारों ग्रामीणों के अधिकारों की लड़ाई थी, जो अपनी जल, जंगल और ज़मीन को बचाने के लिए वर्षों तक संघर्षरत रहे। इस आंदोलन का सबसे काला दिन 2 फरवरी 2001 को आया, जब पुलिस ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे ग्रामीणों पर गोलियां चला दीं, जिसमें 8 निर्दोष लोग शहीद हो गए।
कोइल कारो परियोजना: विकास या विनाश?
1950 के दशक में कोइल कारो जल विद्युत परियोजना का सर्वेक्षण शुरू हुआ था। 1973 की मूल परियोजना रिपोर्ट के अनुसार, तत्कालीन रांची (अब खूंटी) और गुमला जिलों के 125 गांवों को विस्थापित किया जाना था। लेकिन कोइल कारो जनसंगठन के अनुसार, इस परियोजना से 256 गांवों के लगभग 1.5 लाख लोग प्रभावित होने वाले थे।
परियोजना के तहत—
- खूंटी जिले के कारो नदी पर तोरपा प्रखंड के लोहाजिमी के पास 55 मीटर ऊंचा बांध प्रस्तावित था।
- गुमला जिले के बसिया प्रखंड में तेतरा और मझकेरा गांव के पास 44 मीटर ऊंचा बांध बनाया जाना था।
- इन दोनों जलाशयों को 34.7 किलोमीटर लंबी सुरंग के माध्यम से जोड़ा जाना था।
- इस परियोजना से 710 मेगावाट जल विद्युत उत्पादन की योजना थी, जो उस समय बिहार राज्य विद्युत बोर्ड की कुल उत्पादन क्षमता (660 मेगावाट) से भी अधिक थी।
सरकार इस महत्वाकांक्षी परियोजना को हर हाल में पूरा करना चाहती थी, लेकिन आदिवासी समुदायों ने इसे अपने अस्तित्व के लिए खतरा माना। वे अपने पुश्तैनी घरों, खेतों और सांस्कृतिक धरोहरों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। यही कारण था कि 1974-75 में इस परियोजना के खिलाफ एक बड़े जन आंदोलन की शुरुआत हुई।
कोइल कारो जनसंगठन और आंदोलन की रणनीति
1975-76 में इस आंदोलन को संगठित करने के लिए “कोइल कारो जनसंगठन” की स्थापना की गई। संगठन ने अहिंसक तरीकों से विरोध किया, जिसमें—
- काम रोको अभियान
- क्रमबद्ध धरना-प्रदर्शन
- दीवार लेखन और जन जागरूकता अभियान
- परियोजना स्थल की ओर जाने वाले रास्तों की नाकाबंदी
- सड़क पर खेती कर यह दिखाना कि जमीन का असली हकदार कौन है
- जनता कर्फ्यू जैसे प्रभावशाली कदम शामिल थे।
सरकार ने आंदोलन को कमजोर करने के लिए विस्थापित होने वाले गांवों को “आदर्श गांव” के रूप में विकसित करने का वादा किया। लेकिन आंदोलनकारियों ने सरकार को चुनौती दी कि पहले सिर्फ दो गांवों का सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पुनर्वास करके दिखाया जाए। आज तक सरकार यह नहीं कर पाई, जिससे यह साबित होता है कि विस्थापन सिर्फ पुनर्वास के झूठे वादों से ढका गया एक अन्याय था।
5 जुलाई 1995: आंदोलन की पहली जीत
5 जुलाई 1995 को इस परियोजना का शिलान्यास तपकरा, तोरपा और तेतरा में होने वाला था, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव को आना था। लेकिन आंदोलन की ताकत और एकजुटता के कारण यह शिलान्यास नहीं हो सका। यह इस संघर्ष की पहली बड़ी जीत थी।
तपकरा गोलीकांड: 2 फरवरी 2001
आंदोलन के दौरान ग्रामीणों ने अपने गांवों की सुरक्षा के लिए जगह-जगह चेकपोस्ट बना रखे थे। 1 फरवरी 2001 को डेरांग गांव के पास बने एक चेकपोस्ट को तोड़ते हुए तपकरा ओपी और रनिया थाना की पुलिस ने दो ग्रामीणों—अमृत गुड़िया और लोरेन्तुस गुड़िया की बुरी तरह पिटाई की।
इसके विरोध में 2 फरवरी 2001 को सैकड़ों ग्रामीण तपकरा ओपी का घेराव करने पहुंचे। वे प्रशासन से बातचीत करना चाहते थे और अपनी मांगें रखना चाहते थे। लेकिन पुलिस ने बातचीत के बजाय सीधे गोलीबारी शुरू कर दी, जिसमें 8 निर्दोष ग्रामीण शहीद हो गए।
तपकरा गोलीकांड में शहीद हुए वीरों के नाम:
- बोडा पहान
- जमाल खान
- समीर डहंगा
- सुंदर कंडुलना
- प्रभुसहाय कंडुलना
- सोमा जोसेफ गुड़िया
- लूकस गुड़िया
- सुरसेन गुड़िया
संघर्ष जारी है…
तपकरा गोलीकांड के बाद भी कोइल कारो आंदोलन कमजोर नहीं पड़ा। ग्रामीणों की एकजुटता और संघर्ष ने इस परियोजना को अब तक रोक रखा है। यह आंदोलन सिर्फ एक बांध के विरोध का नहीं, बल्कि जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा के लिए आदिवासी समाज के संकल्प का प्रतीक है।
निष्कर्ष
तपकरा गोलीकांड और कोइल कारो आंदोलन भारतीय जन आंदोलनों के इतिहास में एक मील का पत्थर हैं। यह संघर्ष न सिर्फ झारखंड, बल्कि पूरे देश में जल, जंगल और ज़मीन के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले लोगों के लिए प्रेरणा बना है।