टंट्या भील: गुलाम भारत के आदिवासी रॉबिनहुड

सन 1878 से 1889 तक के ब्रिटिश भारत के इतिहास में एक ऐसे आदिवासी नायक थे जिन्होंने ब्रिटिशों और उनके चाटुकारों के नाक में दम कर दिया था. इससे परेशान ब्रिटिशों ने उन्हें 4 दिसंबर 1889 को फांसी की सजा दी गई थी.

इस आदिवासी महानायक को कोई मामा कह कर पुकारता था, तो कोई अद्वितीय नायक. कोई लुटेरा कहता था, तो कोई डाकू करार देता था. किसी ने क्रांतीकारी कह कर सराहा, तो किसी ने भारत का रॉबिन हुड कह कर संबोधित किया.

हम बात कर रहे हैं मध्य प्रदेश के खण्डवा जिले के भील आदिवासी समुदाय में जन्में टंट्या भील की. जी हां टंट्या भील का, जिन्हें टंट्या मामा रूप में जाना जाता है.

Illustration from The Tribes and Castes of the Central Provinces of India (1916)

टंट्या मामा को क्यों लोग अलग-अलग नामों से उन्हें पुकारा करते थे?

टंट्या इतिहास के उन नायकों में से एक थे जो अंग्रेजी अत्याचारों और हुकूमतों का विरोध किया. उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ 12 वर्षों तक संधर्ष किया था. उनके इसी संधर्ष के कारण स्थानीय लोग आदिवासी जन नायक मानते थे. वहीं अंग्रेजी हुकूमत टंट्या को विद्रोही, लुटेरा और डाकू करार दिया था.

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टंट्या बचपन से ही निडर और जिज्ञासा का भाव रखते थे. उनके इस भाव ने आगे चल कर घनुष-वाण, घुड़सवारी, निशानेबाजी जैसे आदि कलाओं में माहिर बना दिया था. टंट्या ने साल 1857 के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर रह क्रांतिकारियों से काफी प्रभावित हुए. जिसके बाद उन्होंने अपने कलाओं का प्रयोग अंग्रेजों के अत्याचारों को रोकने के लिए करने लगे.

अंग्रेज समर्थक जमीनदारों व शाहुकारों को लुटते थे टंट्या मामा

टंट्या से प्रभावित अन्य लोगों ने उनका साथ देना शुरू कर दिया. वे लोगों को संगठित करने लगे और संभवत: आदिवासियों के अद्वितीय नायक के रूप में सामने आए. टंट्या ने लोगों के साथ अंग्रेजों और उनके निर्देशानुसार काम कर रहे जमीनदारों, शाहूकारों, चाटूकारों और अन्य सहयोगियों को लूटना शुरू किया. हासिल किए गए लूटों को वे गरीब, असहाय, जरूरतमंद लोगों में बांट दिया करते थे.

टंट्या के इन कारनामों के कारण स्थानीय लोग उन्हें मसीहा मानते थे. लोगों में उनके प्रति प्यार, स्नेह, सम्मान बढ़ता चला गया. यही वजह रही कि प्यार से उन्हें टंट्या मामा कह कर अपना आदर जताने लगे.

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वर्ष 1874 में उन्हें चोरी करने पर पहली बार जेल भेजा गया था. वर्ष 1878 के कारावास के बाद टंट्या ने जंगल में रहकर गुरिल्ला युद्ध नीती को अपनाया. इससे वे और ज्यादा अदम्य साहसी क्रांतिकारी के रूप में उभरने लगे जो अंग्रेजों और अंग्रेजी सहयोगियों के नाक में दम कर के रख दिया था. इसके बाद अंग्रेजों को भारी नुक्सान होने लगा.

तंग आ चुके अंग्रेजों ने टंट्या को पकड़ने की कई बार कोशिश की. लेकिन टंट्या के शातिर दिमाग और चालों के कारण हमेशा असफल हो जाते थे. खास कर जंगलों में प्रवेश के बाद टंट्या को पकड़ना नामुमकिन हो जाता था.

अपनों ने ही दिया धोखा

टंट्या का पकड़ा जाना अंग्रेजों के लिए काफी चुनौतिपूर्ण साबित हो रहा था. इसलिए उन्होंने एक षड़यंत्र रची, जिसमें टंट्या के रिश्तेदारों को शामिल किया गया. अपने ही रिश्तेदारों के विश्वासघात के तहत टंट्या को कब्जे में लिया जा सका. अंग्रेजों ने उन्हें इंदौर के सेंट्रल इंडिया एजेंसी जैन में रखा. लेकिन टंट्या के गिरफ्तारी से नाखुश  लोगों के विद्रोह को देख जबलपुर लाया गया. यहां उन्हें बहुत प्रताड़ित किया गया और 19 अक्टूबर 1889 को फांसी की सजा देने की घोषणा की गई और 4 दिसंबर 1889 को उन्हें फांसी दी गई थी.

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बता दें कि फांसी के बाद विद्रोहियों के डर से अंग्रेजों ने टंट्या के शव को पातालपानी रेलवे स्टेशन के पास फेंक दिया था. जहां वर्तमान में उसी स्थान पर उनकी समाधी मौजूद है. टंट्या भील की गिरफ्तारी के बाद न्यूयार्क टाइम्स के अंक में भारत का रॉबिनहुड कहा था.

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