विजय उरांव, फर्स्ट पीपल के लिए
सरना स्थल और ओरण न केवल पर्यावरण संरक्षण का पारंपरिक मॉडल है, बल्कि यह आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और सामुदायिक पहचान का अभिन्न हिस्सा भी है। भारत के पवित्र वनों की परंपरा हजारों साल पुरानी है। ये वन क्षेत्र उन प्राकृतिक स्थलों का प्रतिनिधित्व करते हैं जहां प्रकृति और मानव के बीच गहरी सामंजस्यपूर्ण भावना बसती थी।
झारखंड जैसे आदिवासी बहुल राज्यों में पवित्र वनों (सरना स्थल) का अस्तित्व केवल पर्यावरणीय महत्व तक सीमित नहीं है, बल्कि ये स्थल आदिवासियों की सामूहिक पहचान, उनकी धार्मिक आस्थाओं और सांस्कृतिक विरासत के वाहक हैं। लेकिन आज सरना स्थलों और ओरण की दुर्दशा केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं है; यह एक बड़ी सांस्कृतिक त्रासदी और आदिवासी विनाश का संकेत है।
पवित्र वनों (सरना स्थलों) का गायब होना: केवल पर्यावरणीय क्षति नहीं
भारत में आज भी लगभग 100,000 पवित्र वन मौजूद होने का दावा किया जाता है, लेकिन इनकी वास्तविक स्थिति दिन-ब-दिन खराब हो रही है। झारखंड के आदिवासी इलाकों में सरना स्थल, जो कभी घने वनों और प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध हुआ करते थे, अब केवल एक पेड़ या एक खाली जगह तक सिमटकर रह गए हैं।
यह बदलाव केवल प्राकृतिक नुकसान का संकेत नहीं है, बल्कि आदिवासी समुदायों की परंपराओं और जीवनशैली पर मंडरा रहे अस्तित्व के संकट का प्रतीक है।
सरना स्थल या ओरण क्या है?
सरना स्थल या ओरण को पवित्र वन (Sacred Groves) भी कहा जाता है, पारंपरिक रूप से संरक्षित ऐसे वन क्षेत्रों को कहते हैं जो स्थानीय समुदायों द्वारा धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व के कारण संरक्षित किए जाते हैं। भारत में आदिवासी और ग्रामीण समुदायों के लिए यह स्थल आस्था, परंपरा और पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक है।
पवित्र वनों में पेड़, पौधे, और वन्यजीवों को धार्मिक दृष्टिकोण से पवित्र माना जाता है। इन्हें संरक्षित करने की जिम्मेदारी समुदायों की होती है, और यहाँ शिकार या वनों की कटाई वर्जित होती है।
भारत में पवित्र वनों की स्थिति:
वर्तमान में, भारत में लगभग 13,000 से अधिक पवित्र वनों की प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध है, जो लगभग 33,000 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले हुए हैं। यह देश के कुल भूमि क्षेत्र का मात्र 0.01% है।
हालांकि, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, और आधुनिक कृषि प्रथाओं के विस्तार के कारण इन वनों पर खतरा मंडरा रहा है। कई पवित्र वन अतिक्रमण, अवैध कटाई, और पर्यावरणीय प्रदूषण के शिकार हो रहे हैं, जिससे उनकी संख्या और क्षेत्रफल में कमी आ रही है।
पवित्र वनों के विभिन्न नाम:
भारत के विभिन्न राज्यों में पवित्र वनों को स्थानीय भाषाओं और सांस्कृतिक परंपराओं के अनुसार अलग-अलग नामों से जाना जाता है:
झारखंड: यहां इन्हें ‘सरना’ कहा जाता है, जो आदिवासी समुदायों के धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन का केंद्र है।
छत्तीसगढ़: यहां इन्हें ‘देवगुड़ी’ के नाम से जाना जाता है, जो स्थानीय देवताओं और पूर्वजों की पूजा के स्थल होते हैं।
राजस्थान: यहां पवित्र वनों को ‘ओरण’ कहा जाता है, जो स्थानीय समुदायों द्वारा संरक्षित होते हैं और पर्यावरणीय संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
अरुणाचल प्रदेश: यहां इन्हें ‘देवस्थली’ कहा जाता है, जो धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व के स्थल हैं।
उत्तराखंड: यहां पवित्र वनों को ‘देवभूमि’ के नाम से जाना जाता है, जो देवताओं की भूमि मानी जाती है।
मध्य प्रदेश: यहां इन्हें ‘देवकोट’ कहा जाता है, जो स्थानीय देवताओं के निवास स्थान माने जाते हैं।
झारखंड में सरना स्थल का पतन: कौन है जिम्मेदार?
- शहरीकरण और औद्योगिकीकरण का दबाव
झारखंड जैसे खनिज संपदा से भरपूर राज्य में विकास के नाम पर आदिवासी क्षेत्रों का सबसे अधिक शोषण हुआ है। सड़कों, खदानों और उद्योगों के निर्माण के लिए हजारों हेक्टेयर वन भूमि अधिग्रहित कर ली गई।
सरना स्थल, जो आदिवासियों के लिए पवित्र स्थल थे, इस प्रक्रिया का पहला शिकार बने। आज ये स्थल केवल नाममात्र के पेड़ बनकर रह गए हैं।
- सांस्कृतिक अस्मिता का क्षरण
आधुनिकीकरण और धर्मांतरण ने आदिवासी युवाओं को अपनी परंपराओं और धार्मिक विश्वासों से दूर कर दिया है। सरना स्थलों की जो सामूहिक पूजा की परंपरा थी, वह धीरे-धीरे कमजोर हो रही है। परिणामस्वरूप, ये स्थल सामुदायिक एकता के प्रतीक से केवल भूखंडों तक सीमित हो गए हैं।
- सरकार और समाज की उदासीनता
सरना धर्म को संवैधानिक मान्यता न देना इन स्थलों के पतन का सबसे बड़ा कारण है। आदिवासी समुदाय वर्षों से सरना धर्म को सरकारी मान्यता देने की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकार की उदासीनता ने इस मांग को अनसुना कर दिया है।
बिना कानूनी संरक्षण के, सरना स्थलों को विकास परियोजनाओं और भूमि अतिक्रमण से बचाना लगभग असंभव हो गया है।
- बाहरी प्रभाव और भूमि विवाद
झारखंड में आदिवासी समुदायों के बीच बाहरी धर्मों और संस्कृतियों का प्रभाव बढ़ा है। सरना स्थलों की भूमि अक्सर धर्मांतरण और बाहरी हस्तक्षेप के कारण विवादित होती है।
क्या यह आदिवासियों के विनाश का संकेत है?
सरना स्थलों का पतन केवल एक भौगोलिक नुकसान नहीं है; यह आदिवासी समुदायों के सांस्कृतिक और धार्मिक विनाश की शुरुआत का संकेत है।
- सांस्कृतिक पहचान पर खतरा
सरना स्थल केवल पूजा के स्थान नहीं थे; वे सामुदायिक एकता, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और पारंपरिक ज्ञान का केंद्र थे। इनका नष्ट होना आदिवासियों की सांस्कृतिक पहचान को खत्म करने जैसा है।
- पर्यावरणीय संकट
पवित्र वनों का संरक्षण केवल धार्मिक महत्व के लिए नहीं था; ये स्थल जल स्रोतों की रक्षा करते थे और जैव विविधता को बढ़ावा देते थे। आज, इन वनों के नष्ट होने से स्थानीय पारिस्थितिकी पर भीषण प्रभाव पड़ा है।
- सामुदायिक संरचना का टूटना
सरना स्थल सामुदायिक निर्णय लेने और सामाजिक एकता के केंद्र थे। इनकी अनुपस्थिति ने आदिवासी समुदायों में अलगाव और बिखराव को जन्म दिया है।
क्या हो सकता है समाधान?
सरना स्थलों और ओरण को बचाने के लिए तुरंत ठोस कदम उठाने की जरूरत है।
- कानूनी मान्यता और संरक्षण
सरना धर्म को आधिकारिक मान्यता देने से न केवल इन स्थलों की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान मजबूत होगी, बल्कि यह कानूनी रूप से उनकी रक्षा सुनिश्चित करेगा।
सरकार को सरना स्थलों को संरक्षित क्षेत्र घोषित करना चाहिए, ताकि इन पर बाहरी अतिक्रमण न हो सके।
- सामुदायिक जागरूकता
आदिवासी समुदायों को अपनी परंपराओं और पर्यावरणीय जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक किया जाना चाहिए। यह जागरूकता न केवल उनके सांस्कृतिक अस्तित्व को बचाएगी, बल्कि पवित्र वनों के संरक्षण में भी मदद करेगी।
- पर्यावरणीय और सांस्कृतिक परियोजनाएं
सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को संयुक्त रूप से इन स्थलों के संरक्षण के लिए परियोजनाएं शुरू करनी चाहिए।
स्थानीय आदिवासी समुदायों को इन परियोजनाओं का अभिन्न हिस्सा बनाया जाना चाहिए।
पर्यावरण संरक्षण और धार्मिक आस्था के बीच संतुलन स्थापित करने की दिशा में काम किया जाना चाहिए।
- शिक्षा और युवाओं की भागीदारी
आदिवासी युवाओं को अपनी संस्कृति से जोड़ने के लिए शैक्षिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन जरूरी है।
अस्तित्व की लड़ाई
सरना स्थल और ओरण केवल पर्यावरणीय धरोहर नहीं हैं; ये आदिवासियों के जीवन का आधार हैं। इनका नष्ट होना आदिवासी समुदायों के अस्तित्व पर सीधा प्रहार है।
सरना स्थलों को पुनर्जीवित करना न केवल पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से जरूरी है, बल्कि यह आदिवासियों की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान की रक्षा के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
सरकार, समाज और आदिवासी समुदायों को मिलकर इस संकट का समाधान निकालना होगा। यदि आज हमने कदम नहीं उठाए, तो आदिवासी समुदायों के साथ-साथ हमारी प्रकृति और परंपरा भी इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह जाएगी।