आदिवासी शोध एवं सामाजिक सशक्तिकरण अभियान के तहत उरांव समाज में पारंपरिक विवाह (बेंज्जा) संबंधी और न्यायालय व्यवस्था में वर्तमान चुनौतियां के बारे में परिचर्चा का आयोजन किया गया. दिनांक 2 अप्रैल को आयोजित परिचर्चा में विशेष रूप से कई लोग उपस्थित रहे. इसके व्याख्यान श्रृंखला में प्रो. रामचन्द्र उरांव सहित अन्य सुधीजनों ने कस्टमरी लॉ के लिखित प्रमाण की आवश्यकता जैसे मामलों के महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर चर्चा किया.
दरअसल, उरांव आदिवासी समूह के कस्टमरी लॉ का कोई लिखित प्रमाण नहीं है. इसलिए रामचन्द्र उरांव ने वर्तमान में इसके लिखित प्रमाण की आवश्यकता को बताया है. वे कहते हैं कि आदिवासी अपने कस्टम से गवर्न जब तक होते हैं, वे आदिवासी हैं. उनके कस्टम, रीति रिवाज मायने रखते हैं. वर्तमान परिस्थिति और समस्याओं को देखते हुए उरांव आदिवासी कस्टमरी लॉ का डोक्यूमेन्टेसन आवश्यक है. चूंकि उनके कानूनों का लिखित प्रमाण नहीं है, ऐसी स्थिति में भारतीय न्यायिक चुनौतियों से सामना करना मुश्किल है.
रामचन्द्र कहते हैं कि यह महत्वपूर्ण बात है कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं. इस वजह से उनपर हिन्दू मैरेज एक्ट लागू नहीं हो सकता. विवाह के तरीके ही विवाह विच्छेद के तरीके को निर्धारित करेंगे. व्यक्ति जहाँ पर्याप्त रूप से हिन्दू रीति-रिवाज को मानेगा, इस स्थिति में उसपर हिन्दू मैरेज एक्ट लागू होगा. भारतीय संविधान में ‘हिन्दू’ को परिभाषित किया है – क) जन्म से, ख) माँ या पिता किसी एक के हिन्दू होने से संतान का लालन-पोषण हिन्दू रीति-रिवाज से है, तो वह हिन्दू है, ग) धर्म से, घ) जो पारसी नहीं है, जैन नहीं हैं, ईसाई नहीं हैं, मुस्लिम नहीं है, वे हिन्दू हैं.
इस पर वे आगे कहते हैं कि भारतीय संविधान में जिस तरह से हिन्दू को परिभाषित किया गया है, ऐसे में आदिवासी कस्टम लॉ को प्रमाणित नहीं कर पाने की स्थिति में, आदिवासी को ‘हिन्दू’ समझे जाने की भारी संभावना है. यह स्थिति भयावह है.
कस्टमरी लॉ, पड़हा व्यवस्था के शिथिल होने के कारण आदिवासी भारतीय न्यायिक व्यवस्था की ओर उन्मुख हो रहे हैं. उनके फैसले लेने में न्यायिक व्यवस्था असक्षम है. इसलिए आदिवासी न्यायिक व्यवस्था के नियम-कानून का डोक्यूमेन्टेशन आवश्यक है.
परिचर्चा में शामिल एडवोकेट चेतन नागेश ने आदिवासी समूह की भावी समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षण किया. उन्होंने कहा कि उरांव आदिवासी के पास अपने परंपरागत रीति-रिवाज, नेग-चार के लिखित प्रमाण नहीं होने के कारण कई सारी न्यायिक समस्या उत्पन्न हो रही है. परंपरा में लौटकर मौजूद नेग-चार को डिकोड करने की आवश्यकता है. उन्हें डॉक्यूमेन्ट करने की आवश्यकता है.
वहीं जितन उरांव ने अभिभाषण में कहा कि पड़हा व्यवस्था से उरांव आदिवासी समाज संचालित है. ‘पड़हा’ उराँव सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों का संचालन करती है. साथ ही सामाजिक,सांस्कृतिक, आर्थिक समस्याओं का निराकरण पड़हा व्यवस्था द्वारा होती है. पड़हा में गाँव बालिक सदस्य होते हैं. इसके हर एक सदस्य का विचार समान रूप से मायने रखता है. आज आदिवासी समस्या कोर्ट जा रहे, उन समस्याओं के निपटारे के लिए पड़हा जिम्मेदार है, किंतु पड़हा व्यवस्था के नियम कानून लिखित नहीं होने के कारण अमान्य हो चुके हैं. इस स्थिति में सारे नियम कानून को लिखित रूप दिया जाना आवश्यक है.
समाज के सुचारू संचालन के लिए सरन उरांव ने एक सुदृढ़ व्यवस्था के आवश्यक होने बात कही है. उनके अनुसार सारी समस्याओं का निदान समाज की व्यवस्था करती है. सामाजिक व्यवस्थाओं में गड़बड़ी सांस्कृतिक दृष्टि से भी कई सारी समस्याओं का न्योता है. पड़हा और धुमकुड़िया को बनाए रखने की आवश्यकता है.
इसके साथ ही महामनी उरांव ने मुखर होकर कहा कि यदि पुरूष वर्ग जनी और जमीन का मालिक कहलाता है, तो अपने पुरूष कमजोर हैं, क्योंकि वे इन दोनों को ही बचा नहीं पा रहे हैं. पारिवारिक सामुदायिकता और सहभागिता में एकजुटता की कमी दिखाई पड़ रही है, यही हमारे सांस्कृतिक क्षरण का कारण है.
वहीं सामाजिक व्यवस्था पर नारायण भगत कहते हैं कि उरांव आदिवासी के पास पहले से यह व्यवस्था बनी बनायी हुई है- 1) पद्दा पंच और 2) पड़हा पंच. आदिवासी समूह के मध्य यह किसी भी न्यायिक व्यवस्था से सर्वोच्च स्थान रखता है. यही सुचारू सामाजिक व्यवस्था के लिए जिम्मेदार है. नवयुवकों से अपील है कि वे इसे दुरूस्त करने का प्रयास करें. भारत को बचाने के लिए संविधान निर्मित किया गया. अब आदिवासियों को बचाने के लिए पद्दा पंच और पड़हा पंच को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है.
आदिवासियों के नियम-कानून पर महादेव टोप्पो कहते हैं कि पुरखों ने प्रकृति के साहचर्य में ये नियम-कानून बनाए हैं. उनका जीवनदृष्टि और जीवनशैली विशिष्ट है. प्रकृति के अध्ययन से रीति-रिवाजों को परंपरा में जोड़ा है. यह सबसे अद्भुत है. प्रकृति के अनुशासन में रहकर ये पांच महत्वपूर्ण व्यवस्था – 1)पड़हा, 2) धुमकुड़िया 3) अखड़ा 4) सेंदरा 5) जतरा आदि व्यवस्था बनाए गये हैं. साल 1850 के बाद आदिवासी समाजिक परिवर्तन कई तरह से हुए. आधुनिक शिक्षा ने अपनी परंपराओं के प्रति कहीं न कहीं हीनता का भाव पैदा किया है. आज के समय की मांग है, स्वभावगत तरीके से शामिल रीति-रिवाजों को संजोया जाए.
कार्यक्रम के अध्यक्ष डॉ करमा उरांव ने समाज को सोझाने की बात कही. उन्होंने कहा कि परंपरा में मौजूद व्यवस्था को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाना चाहिए. आदिवासी समाज के कार्य पालिका, राज पालिका, न्याय पालिका व्यवस्था को सुदृढ़ किया जाना आवश्यक है. वहीं डॉ प्रकाश चन्द्र उरांव ने कहा कि इस बैठक में सारी महत्वपूर्ण बातों को अब व्यवहार में लाने की आवश्यकता है.
बता दें कि परिचर्चा का सुचारू संचालन डॉ अभय सागर मिंज और डॉ नारायण उरांव द्वारा किया गया.