किस समुदाय के रोम-रोम में समाये हैं राम?

कण-कण में समाने वाले राम अगर किसी के मन में न समा पाएं तो यह राम का नहीं, उस व्यक्ति का ही दोष है. कण-कण में समाने वाले राम अपने भक्तों के रोम-रोम में समा जाते हैं. देश में एक ऐसा समाज भी है, जिसके रोम-रोम असल में राम समाए हैं. हम बात कर रहे हैं रामनामी समाज की. रामनामी समाज के लोग अपने शरीर के हर हिस्से में राम-राम लिखवाते हैं. यही नहीं उनके कपड़ों पर भी हर जगह राम का नाम होता है. चलिए जानते हैं ऐसा क्यों होता है.

रामनामी समाज के लोग अपने पूरे शरीर पर ‘राम-राम’ का पर्मानेंट टैटू करवाते हैं. इनके पूरे शरीर पर जहां देखें वहां राम नाम एक लयबद्ध तरीके से लिखा दिखता है. यह लोग जो कपड़ने पहनते हैं उन पर भी राम-राम लिखा रहता है. देश और दुनिया में एक दूसरे का अभिवादन हेलो, हाय, नमस्कार आदि शब्दों से किया जाता है. लेकिन इस समुदाय के लोग एक-दूसरे से मिलते हैं तो राम-राम कहकर ही. हालांकि, देश के कई अन्य हिस्सों में भी राम-राम अभिवादन का एक तरीका है.

See also  आदिवासी का मतलब, इस देश के पहले और असली मालिक : राहुल गांधी

अपने-अपने नहीं यहां हर कोई राम है

मशहूर कवि कुमार विश्वास पिछले काफी समय से ‘अपने-अपने राम’ नाम से एक कार्यक्रम कर रहे हैं. लेकिन इन लोगों के तो जीवन का हिस्सा हैं राम. यहां लोगों के नाम तक नहीं लिए जाते, बल्कि सभी एक-दूसरे को राम कहकर पुकारते हैं. बड़ी बात यह है कि इनके राम अयोध्या के राजा राम नहीं हैं, न ही मंदिरों में रखी राम की मूर्तियों के प्रति इनका मोह है. बल्कि इनका राम हर मनुष्य में है, पेड़-पौधों, जीव-जंतु और पूरी प्रकृति में समाया हुआ है.

कितनी पुरानी परंपरा

रामनामी समाज की अपने पूरे शरीर पर राम-राम लिखवाने की परंपरा बहुत पुरानी नहीं है. बल्कि इसकी शुरुआत 1890 में यानी आज से करीब 133 साल पहले हुई थी. कहा जाता है कि छत्तीसगढ़ में जांजगीर-चांपा जिले एक एक गांव चारपारा में इस परंपरा की शुरुआत हुई थी. यहां के एक दलित युवक परशुराम ने 1890 में यह परंपरा शुरू की थी.

See also  छत्तीसगढ़ की नई मुख्यमंत्री हो सकती हैं यह आदिवासी महिला विधायक, इनका नाम सबसे आगे

कैसे शुरू हुई परंपरा

कहा जाता है कि दलित समुदाय का होने के कारण 20 वर्षीय परशुराम को मंदिर में आने से रोक दिया गया था. इस घटना के बाद उन्होंने अपने माते पर राम गुदवा लिया था. हालांकि, कुछ जानकार इसे 15वीं सदी के भक्ति आंदोलन से जोड़कर भी देखते हैं.

कोई भी बन सकता है रामनामी

भले ही यह माना जाता हो कि दलित समुदाय ने रामनामी समाज की शुरुआत की, लेकिन आज कोई भी रामनामी बन सकता है. किसी भी धर्म, वर्ण, लिंग या जाति का व्यक्ति चाहे तो रामनामी समाज के सदस्य के रूप में दीक्षित हो सकता है. इस समाज के लोगों के जीवन, रहन-सहन और बातचीत में हर जगह राम-नाम समाया हुआ है. इस समाज के लोगों के लिए शरीर पर राम-नाम गुदवाना बहुत ही जरूरी है.

यहां भी अलग-अलग वर्ग

शरीर के किसी भी हिस्से पर राम नाम लिखवाने वालों को रामनामी कहा जाता है. कुछ लोग माथे पर एक जगह राम-राम लिखवाते हैं और उन्हें शिरोमणी कहा जाता है. जो लोग पूरे माथे पर राम-राम लिखवाते हैं उन्हें सर्वांग रामनामी कहते हैं. जिन लोगों के शरीर के हर हिस्से पर राम नाम लिखा होता है, उन्हें पूर्ण नखसिख रामनामी पुकारा जाता है.

See also  Kanguva Review: Suriya Shines in Epic Tale of Myth and Heroism

रामनामी समुदाय की परंपराएं

रामनामी समुदाय के लोग शराब का सेवन नहीं करते हैं और न ही धूम्रपान करते हैं. उनके लिए हर रोज राम नाम जपना भी अनिवार्य है. उनके शरीर पर तो राम नाम गुदा ही होता है, वे ऐसी शॉल ओढ़ते हैं, जिस पर राम नाम प्रिंट होता है. रामनामी समुदाय के लोग सिर पर एक ताज जैसा पहनते हैं, जो मोरपंख से बना होता है. रामनामी समुदाय के लोग देश में अब गिने-चुने रह गए हैं. इन लोगों की आबादी मुख्यतौर पर छत्तीसगढ़ में महानदी के किनारे के आसपास ही है. कुछ लोग महाराष्ट्र और ओडिशा के बॉर्डर इलाके में भी रहते हैं. माना जाता है इनकी संख्या 20 हजार से 1 लाख के बीच है. समाज के युवा अब कई कारणों से पूरे शरीर पर राम-राम गुदवाने से परहेज भी करने लगे हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

10 most Expensive cities in the World धरती आबा बिरसा मुंडा के कथन