यह धर्मांतरण का मुद्दा ऐसा रहा है जिसपर हिन्दू और ईसाई समुदाय के अगुआ तो बोलते रहे, लेकिन आदिवासी समाज के अंदर से इसके खिलाफ कभी संगठित आवाज नहीं निकली. जब कभी प्रयास हुए भी, उसको राजनैतिक तौर पर विफल कर दिया गया. हालांकि एक बार फिर यह मांग देश के कुछ आदिवासी बहुल राज्यों से उठने लगी है कि जिन आदिवासियों ने ईसाई या मुस्लिम धर्म अपना लिया है, उन्हें शेड्यूल ट्राइब के दर्जे से बाहर कर दिया जाना चाहिए. एसटी को मिलने वाली संवैधानिक अधिकारों से भी ऐसे आदिवासियों को दूर किया जाना चाहिए.
ध्यान रहे, मांग करनेवाले प्रमुख लोगों ने ईसाई और मुस्लिम धर्म का जिक्र तो किया, लेकिन वो ये नहीं कह रहे कि जिन आदिवासियों ने हिन्दू, सिख, बौद्ध या जैन धर्म अपना लिया है, उन्हें भी एसटी के दर्जे के बाहर किया जाना चाहिए. इसके पीछे की राजनीति को समझने के लिए हम आपको बीते 27 नवंबर 2022 को झारखंड की राजधानी रांची में आयोजित एक समारोह में ले चलते हैं.
रैली का आयोजन जनजातीय सुरक्ष मंच के बैनर तले किया गया था. प्रमुख वक्ताओं में एक लोकसभा के छह बार के सांसद और लोकसभा के पूर्व डिप्टी स्पीकर करिया मुंडा ने एक एतिहासिक प्रकरण का जिक्र किया. उन्होंने कहा कि, इंदिरा गांधी के समय पूर्व मंत्री कार्तिक उरांव ने प्रस्ताव तैयार कराया था कि धर्म बदलकर ईसाई या इस्लाम धर्म अपनाने वाले आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति की सूची से बाहर किया जाय, इस प्रस्ताव को 310 से ज्यादा सांसदों की सहमति मिल गई थी. लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लगा कि लोकसभा से यह पास हो जाएगा तो उन्होंने संसद में इस प्रस्ताव को आने से किसी तरह रोक दिया. इसके बाद इस दिशा में काम नहीं हो सका.
करिया मुंडा के सुर में सुर मिलानेवालों में छत्तीसगढ़ के पूर्व मंत्री और बीजेपी के नेता गणेश राम भगत, गुमला के बीजेपी के पूर्व विधायक शिव शंकर उरांव सहित कई अन्य नेता शामिल थे.
डिलिस्टिंग अभियान और उसका आरएसएस से कनेक्शन
बता दें कि साल 2020 में आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि आगामी जनगणना में आदिवासी धर्म वाले कॉलम में अपना धर्म हिन्दू लिखें, इसके लिए संघ देशभर में अभियान चलाएगा.
इस बयान के बाद दिसंबर 2021 में अरुणाचल प्रदेश में ‘जनजाति सुरक्षा मंच’ की ओर से ऐसे ‘आदिवासियों की डिलिस्टिंग’ के लिए एक रैली का आयोजन किया गया. इसके बाद दिसंबर 2021 में बीजेपी के सांस गजेंद्र सिंह पटेल और निशिकांत दुबे ने संसद में प्रस्ताव लाया कि धर्मांतरण करा चुके आदिवासियों के आरक्षण का प्रवाधान खत्म किया जाए.
इसके विरोध में फरवरी 2022 में अरूणाचल प्रदेश में ‘अरूणाचल प्रदेश क्रिश्चियन फोरम’ ने सीएम पेमा खांडू से मुलाकात की थी. जिसमें सीएम ने बताया था कि ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिससे इसाई बने आदिवासियों को ST लिस्ट से हटाया जा सके. ईसाई आदिवासी महासभा के बैनर तले मई में छत्तीसगढ़ के जशपुर, पथलगांव और कंसाबेल में रैली कर, इस पर अपना विरोध जताया था.
धर्मांतरित आदिवासियों को डिलिस्टिंग करने की मांग 50 साल पुरानी है. जिसमें 14 नवंबर 1963 में पटना हाई कोर्ट में कार्तिक उरांव बनाम डेविड मुंजनी बनाम अन्य का केस दायर किया गया था. हालांकि पटना हाईकोर्ट ने ईसाई आदिवासियों के फेवर में जजमेंट दिया था.
हम आपको पढ़ा रहे हैं लोकसभा के उस दिन का हाल, जब कार्तीक उरांव ने इंदिरा सरकार के सामने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया था. पेश है लोकसभा प्रोसिडिंग से लिए गए बहस के कुछ अंश…
(धर्म परिवर्तन के पश्चात् आदिम जातीय लोगों को विशेष सुविधाओं को समाप्त करना)
दिनांक 05-08-1979 मौखिक जवाब
ओम प्रकाश त्यागी – क्या विधि तथा समाज कल्याण मंत्री यह बताने की कृपा करेंगे कि
- क्या यह सच है कि श्री एस. राजगोपालन की चुनाव याचिका पर अपने निर्णय की घोषणा करते हुए उच्चतम न्यायलय ने यह मत व्यक्त किया था कि आदिम जाति के कोई भी व्यक्ति धर्म परिवर्तन के बाद आदिम जाति के लोगों को मिलने वाली विशेष सुविधाओं का हकदार नहीं रहता है. क्योंकि धर्म परिवर्तन करने के बाद वह आदिम जाति का सदस्य नहीं रहता है.
- यदि हां, तो क्या उच्चतम न्यायलय के उपर्युक्त निर्णय के अनुसरण में आदिम जाति के उन लोगों को जिन्होने धर्म परिवर्तन किया है अब तक मिलने वाली विशेष सुविधाओं को समाप्त करने का सरकार का विचार है.
- यदि नहीं, तो इसके क्या कारण है.
समाज कल्याण विभाग व कानून मंत्रालय में उपमंत्री (श्री मुत्याल राव)– (क) प्रासंगिक निर्णय समर्थन करता प्रतीत नहीं होता है, जो माननीय सदस्य द्वारा अवलोकन किया गया है. (ख) और (ग) यह नहीं उठाया गया है.
ओम प्रकाश त्यागी – श्री राजगोपालन की चुनाव याचिका इसी आधार पर रद्द की गई थी कि उन्होने ईसाई धर्म अपना लिया था और हाईकोर्ट के जज ने अपना निर्णय देते हुए यह कहा था कि चूंकि उन्होंने धर्म परिवर्तन कर लिया है और यह ट्राईब नहीं रह गए हैं, इसलिए उनकी याचिका रद्द की जाती है. अब गवर्नमेंट का यह कहना है कि यह यहां एराईज नहीं होता है. यह बात समझ में नहीं आयी है. धर्म परिवर्तन चूंकि उन्होंने कर लिया था. इस वास्ते वह ट्राईबल नहीं रह गए थे. ईसाई या मुसलमान या हिंदू कुछ भी हो गए थे. गवर्नमेंट से जो सहायता विशेष दी जाती है. शेड्यूल कास्ट और आदिम जाति के लोगों को और वह सहायता उन लोगों को भी जिन्होंने धर्म परिवर्तन कर लिया है, दी जाती है. इस जजमेंट के प्रकाश में अवैधानिक हो जाती है. उस सहायता का कोई अर्थ नहीं बैठता है. वह नाजायज है और कोई भी उसके खिलाफ रिट दाखिल कर सकता है. मैं जानना चाहता हूं कि क्या गवर्नमेंट ने वह सहायता इस जजमेंट के प्रकाश में बंद कर दी है औऱ यदि नहीं की है तो आप अपने कानून में कोई परिवर्तन इस प्रकार से करने का इरादा रखते हैं कि जो धर्म परिवर्तन कर ले, उसको सहायता न मिले ताकि जजमेंट के अनुसार ठीक कार्य हो सके?
मुत्याल राव – दरअसल सवाल गलत तरीके से पूछा गया है. श्री राजगोपालन शेड्युल ट्राईब के नहीं हैं, शेड्युल कास्ट के हैं. आप जानते हैं कि शेड्युल कास्ट वालों के लिए और शेड्युल ट्राईब लोगों के लिए अलग-अलग सीट रिजर्व की गई है. इस केस में इनके इलेक्शन को इनके अपोनेंट ने चैलंज किया और सनिड जज ने इनके खिलाफ फैसला दे दिया. उनको सुविधाएं मिलती है, इनसे इनका कोई संबंध नहीं है. लेकिन आप जानते हैं कि शेड्यूल ट्राईब्स के लिए अलग-अलग इरादे बनाए गए हैं और माननीय सदस्य जानते हैं कि संविधान में इन दोनों को अलग-अलग सुविधाएं दी गई है. यह बात किसी के दिल दिमाग में रहनी चाहिए कि कोई भी आदमी जब अपना मत बदलता है तो वह शेड्युल कास्ट रह जाता है. लेकिन यह बात सिर्फ शेड्युल ट्राईब में लागू नहीं होती है. उन पर लागू नहीं होती है.
अटल बिहारी बाजपेयी – होनी चाहिए.
मुत्याल राव– इसको मैं मानता हूं. उसके बारे में सोचा जा सकता है. चूंकि संविधान में इस तरह की बात है, इस वास्ते इस वक्त मजबूर हूं. लेकिन इस पर सोचा जा सकता है और सोचकर कोई निर्णय किया जा सकता है.
ओम प्रकाश त्यागी – मैं मंत्री महोदय को धन्यवाद देता हूं कि उन्होने इस बात को सिद्धांतह स्वीकार किया है. लेकिन एक विशेष बात कहना चाहता हूं. जो सहायता अनुसूचित जातियों और आद्म जातियों को दी गई है. वह दो आधारो पर दी गई है, आर्थिक पिछड़ापन और सामाजिक पिछड़ेपन. आर्थिक पिछड़ापन तो हिंदूओं, मुसलमानों, ईसाइयों आदि में भी मिल जाएगा, लेकिन सामाजिक पिछड़ापन एक विशेष चीज है, जिसके कारण दोनों को सहायता दी जा रही है. अगर कोई शेड्यूल कास्ट का आदमी अपना धर्म परिवर्तन करता है, तो उसको सहायता देना बंद कर दिया जाता है. लेकिन शेड्यूल ट्राईब का आदमी ऐसा करता है, धर्म परिवर्तन करता है. हालांकि उनका भी धर्म, उनकी भी संस्कृति आदि सब कुछ चेंज हो जाते हैं. लेकिन उन पर यह चीज लागू नहीं होती है. आपने अनुभव किया है कि दोनों को समान स्तर पर खड़ा किया जाना चाहिए. मैं जानता हूं कि यह जो भेदभाव चल रहा है इसको दूर करने के लिए आप नया प्रयास करने वाले हैं और क्या आप कानून में परिवर्तन करके इन दोनों को समान स्तर पर ला खड़ा करने की कोशिश करेंगे.
मुत्याल राव – सरकार इस पर गौर करने के लिए तैयार है.
कार्तिक उरांव – भारत सरकार अधिनियम, 1919 और 1935 के तहत जिन अनुसूचित जाति और जनजाति ने ईसाई धर्म परिवर्तन कर लिया था. वे भारतीय ईसाई कहलाए. उन्होने 1952 तक के सभी विशेषाधिकारों का आनंद लिया. और जो जनजातीय धर्म (Tribal Religion) को मानने वाले थे “पिछड़ी जनजाति (Backward tribe) ” कहलाए. उस समय उन्हें किसी भी प्रकार की सुविधा नहीं दी गई. नया संविधान जो 1950 में लागू हुआ उसमें भारतीय ईसाईयों के लिए कोई प्रावधान नहीं किए गए थे. क्योंकि वे सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से अधिक उन्नत थे. यहां तक कि उच्च जाति के हिंदूओं और मुसलमानों की तुलना में राजनीतिक रूप से अधिक जागरूक थे और हैं.
उपाध्यक्ष महोदय (Deputy speaker) – क्या आप कृपया प्रश्न पर आयेंगे, क्योंकि समय समाप्त हो गया है.
कार्तिक उरांव – अनुसूचित जनजाति के रूप में पिछड़ी जनजातियों के लिए राष्ट्रीय सरकार ने एक विशेष प्रावधान किया है. लेकिन भाग्य की विडंबना से आज तक 5.53 फीसदी भारतीय ईसाई 75-85 फीसदी केंद्रीय सेवाएं हिस्सा ले रहे हैं. विदेशी छात्रवृति का 60 फीसदी व 90 फीसदी राज्य सेवा और मैट्रिक की छात्रवृति वो भी वास्तविक अनुसूचित जनजातियों के 94.47 फीसदी के खुले शोषण के कीमत पर.
उपाध्यक्ष महोदय – क्या मैं अगली बात पर जाऊ.
कार्तिक उरांव – मैं सरकार से इस बारें में जानना चाहता हूं क्या उनके पास कोई अधिसूचना है, कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय ईसाई अनुसूचित जातियों से शासित जातियां और जनजातियां भारतीय ईसाईयों के विशेषाधिकारों की समाप्ति के बाद अनुसूचित जातियों और जनजातियों में इस आधार पर विलीन हो जाएगी कि वे कहां से आती है. यदि हां, तो वह क्या है? यदि नहीं, तो मैं उस अधिकार को जानना चाहूंगा. जिसके तहत सरकार पत्र और भावना के प्रावधानों में संविधान उल्लंघन कर रही है.
सवाल अब भी वही है. कांग्रेस-बीजेपी के आदिवासी को अपने पाले में खींचने की चालाकी के बीच क्या आदिवासियों की ओर से दशकों से उठाए जा रहे मुद्दे पर गंभीर चर्चा होगी? क्या हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई धर्म के अगुआ अपने संगठित धर्मांतरण पर माफी मांगते हुए आदिवासियों की आदिवासियत को मानने के लिए खुद को मानसिक तौर पर तैयार कर पाएंगे? क्या आदिवासियों का संगठित धर्मांतरण रुकेगा? अब किसी और के भरोसे नहीं, आदिवासी समाज को खुद इसका जवाब तैयार करना होगा.