महिषासुर गाथा
देश में महिषासुर-मर्दिनी देवी दुर्गा की आराधना के नौ दिवसीय पर्व नवरात्र मनाया जा रहा है। महिषासुर को हमारी संस्कृति में आमतौर पर एक बलवान भैंसा, दुराचारी शासक या शैतानी ताकत के रूप में चित्रित किया जाता है जिसे सभी देवताओं की सम्मिलित शक्ति की प्रतीक देवी दुर्गा ने मार डाला था। बात इतनी सीधी नहीं है। महिषासुर के बारे में यह भ्रम संभवतः इस शब्द का गलत अर्थ करने की वजह से ही पैदा हुआ है। उसका नाम महिष और असुर शब्दों के योग से बना है। महिष का प्राचीन अर्थ महा शक्तिमान है। रानी को आज भी महीषी ही कहा जाता है। महिष को भैंसा के अर्थ में प्रयोग बाद में पुराणों में हुआ है। असुर शब्द का प्राचीन अर्थ भी नकारात्मक शक्ति नहीं है। वैदिक कोश के अनुसार ‘असुराति ददाति इति असुर’ – अर्थात जो असु (प्राण) दे, वह असुर (प्राणदाता) है। महिषासुर प्राचीन काल का एक लोकप्रिय असुर नायक था। देश के असुर जनजाति के लोगों में प्राचीन काल से ही उसके कल्याणकारी और शूरवीर रूपों की अनेक कहानियां कही-सुनी जाती रही है। स्वयं पुराण भी स्वीकार करते हैं कि वह अपने समय का सबसे बड़ा आर्येतर योद्धा था। अपने विस्तार के क्रम में देवता कहे जाने वाले आर्य राजाओं ने उसे पराजित करने की कई कोशिशें की, लेकिन असफल रहे। उलटे महिषासुर ने ही उन्हें कई बार पराजित कर उनके स्वर्ग अर्थात उनके वैभवशाली नगरों पर अधिकार कर लिया था।
दुर्गा और महिषासुर के बीच संग्राम के संबंधमें कई पुराणों की कथाओं की तार्किक व्याख्या करें तो पता चलता है कि कई बार पराजित और हताश देवताओं ने अंततः इस तथ्य का पता लगा लिया कि स्त्रियों और पशुओं की रक्षा के लिए कृतसंकल्प महिष उनपर हथियार नहीं उठाता। उसके चरित्र के इसी उज्जवल पक्ष का लाभ उठाते हुए देवताओं ने युद्ध में वीरांगना देवी दुर्गा को भेजकर महिषासुर को पराजित कर उसे मार डालने में सफलता हासिल की। युद्ध में बड़ी संख्या में असुर जनजाति के दूसरे योद्धा भी मारे गए थे। असुर जनश्रुतियों के अनुसार महिषासुर के पराजित समर्थकों और अनुयायियों ने असुरों के भीषण नरसंहार के पांच दिनों बाद शरद पूर्णिमा को विशाल सभा आयोजित की। सभा में उन्होंने अपनी संस्कृति और स्वाभिमान को जीवित रखने का संकल्प लिया था। इसी संकल्प की याद में असुर जनजाति के लोग दशहरा के पांच दिनों बाद शरद पूर्णिमा को ‘महिषासुर शहादत दिवस’ के तौर पर मनाते हैं। महिषासुर लोगों में कितना लोकप्रिय था इसका अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि हजारों साल बाद भी झारखंड में उसकी जनजाति के लोग उसकी पूजा करते हैं। बुंदेलखंड में महोबा से लगभग सत्तर किमी की दूरी पर ग्राम चौका सोरा में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित एक प्राचीन महिषासुर स्मारक मंदिर भी मौजूद है।
हमारा राष्ट्र पिछले हजारों वर्षों में हजारों जातियों, आस्थाओं और संस्कृतियों के बीच र्संघर्षों और समन्वय की विराट कोशिशों से ही बना है। हमारी संस्कृति में युद्ध में जीतने वालों को ही नहीं, युद्ध में पराजित होने और मरने वाले योद्धाओं को भी सम्मान देने की परंपरा रही है। यहां देवी दुर्गा की भी पूजा होती रही है और महिषासुर की भी। राम की भी और रावण की भी। नाग जनजाति के सबसे बड़े विनाशक जनमेजय की भी और नागों के जातीय नायकों – वासुकि, कालिय और शेषनाग की भी। यही सांस्कृतिक विविधता हमारे देश की खूबसूरती है। देवी दुर्गा आर्यों की महान नायिका और महिष असुर जनजाति के महान नायक रहे हैं। दोनों हमारे आदरणीय हैं। हमारा प्राचीन इतिहास आर्येतर जातियों ने नहीं, आर्यों अर्थात देवों के पुरोहितों द्वारा लिखा गया है। आश्रयदाताओं के महिमामंडन के उद्देश्य से उनके विपक्षियों को शैतान और बुराईयों के प्रतीक के तौर पर चित्रित करना उनकी मजबूरी थी। हमारे आगे वैसी कोई विवशता नहीं। हमारे लिए वीरांगना देवी दुर्गा वंदनीय हैं लेकिन असुर जनजाति के प्रतापी जननायक महिषासुर के लिए भी हमारे मन में सम्मान होना चाहिए।
यह लेख ध्रुव गुप्त के फेसबुक वॉल से ली गई है, ध्रुव गुप्त भारतीय पुलिस सेवा (IPS) से सेवानिवृत्त हैं।