प्रख्यात आदिवासी लेखिका डॉ. रोज केरकेट्टा का निधन: साहित्य और समाज को अपूरणीय क्षति

झारखंड की प्रख्यात आदिवासी लेखिका, कवयित्री, सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षिका डॉ. रोज केरकेट्टा का 84 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। उनके निधन से न केवल आदिवासी समाज, बल्कि हिंदी और जनजातीय साहित्य जगत को भी एक गहरी क्षति पहुंची है। वे न सिर्फ एक संवेदनशील रचनाकार थीं, बल्कि जनजातीय अस्मिता, भाषा और संस्कृति की जमीनी पैरोकार भी रहीं।

डॉ. रोज केरकेट्टा का जन्म 5 दिसंबर 1940 को झारखंड के सिमडेगा जिले के कैसरा गांव में हुआ था। वे खड़िया जनजाति से थीं और इस समुदाय की परंपराओं, लोककथाओं और जीवनदर्शन को मुख्यधारा के विमर्श में लाने का कार्य उन्होंने पूरे समर्पण और प्रतिबद्धता के साथ किया। उन्होंने रांची विश्वविद्यालय से “खड़िया लोक कथाओं का साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन” विषय पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आगे चलकर उन्होंने जनजातीय और क्षेत्रीय भाषा विभाग में खड़िया भाषा की शिक्षिका के रूप में भी योगदान दिया।

उनकी प्रमुख रचनाओं में कविता संग्रह “पगहा जोरी-जोरी रे घाटो”, कहानी संग्रह “बिरुवार गमछा तथा अन्य कहानियाँ”, और खड़िया भाषा में “सिंकोए सुलोलो” जैसे कृतियाँ शामिल हैं। उनकी लेखनी में जहाँ एक ओर आदिवासी जीवन की सादगी, संघर्ष और प्रकृति से जुड़ाव दिखाई देता है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर उनकी गहरी दृष्टि भी परिलक्षित होती है। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से बार-बार यह प्रश्न उठाया कि आदिवासी समाज को विकास के नाम पर किस प्रकार हाशिये पर डाला गया।

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डॉ. केरकेट्टा को उनके योगदान के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें रानी दुर्गावती सम्मान, अयोध्या प्रसाद खत्री सम्मान और प्रभावती सम्मान प्रमुख हैं। लेकिन इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण उनका वह प्रभाव है, जो उन्होंने आदिवासी युवाओं पर छोड़ा – उन्हें अपनी भाषा, संस्कृति और इतिहास पर गर्व करना सिखाया।

डॉ. रोज केरकेट्टा का जीवन एक सच्चे जननायिका का था – जिन्होंने कलम को हथियार बनाया और साहित्य को सामाजिक बदलाव का माध्यम। उनका जाना आदिवासी स्त्री चेतना की एक उज्ज्वल ज्योति का बुझना है। वे भले ही शारीरिक रूप से हमारे बीच न रही हों, लेकिन उनकी रचनाएँ और विचार आने वाली पीढ़ियों को मार्गदर्शन देते रहेंगे।

उनकी स्मृति में सबसे सटीक श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उनकी राह पर चलते हुए आदिवासी संस्कृति, भाषा और अधिकारों के लिए कार्य करना जारी रखें।

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