मांकड़िया ओडिशा की विशेष रूप से कमज़ोर जनजातियों (PVTGs) में से एक है. आज के युग में भी ये आदिवासी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है.
हाल ही में मांकड़िया को लेकर दो गैर सरकारी संगठन जनमंगल महिला समिति, पुरी और ग्राम स्वराज बारीपदा द्वारा स्टडी की गई. इस स्टडी का मुख्य लक्ष्य था की मांकड़िया की सामाजिक आर्थिक स्थिति को समझा जा सके.
इस स्टडी में यह जानने की कोशिश भी की गई है कि पीवीटीजी के लिए चलाई जा रही विशेष योजनाओं के अलावा अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ किस हद तक इस समूह तक पहुंच रहा है.
इस स्टडी के अनुसार 55 प्रतिशत आदिवासी को कालिया योजना और 87 प्रतिशत आदिवासियों को पीएम किसान योजना का लाभ नहीं मिल रहा है.
इनमें से 46 प्रतिशत आदिवासियों के घर आज भी जंगलों में बने हुए है और 35 प्रतिशत आदिवासी मजदूरो के रूप में काम करते हैं.
इन आंकड़ो के द्वारा ही मांकड़िया समुदाय की हालत को आसानी से समझा जा सकता है.
87 प्रतिशत आदिवासी पीएम किसान योजना से वंचित
केंद्र सरकार के मुताबिक अभी तक 11 करोड़ आदिवासियों को इस योजना का लाभ मिल चुका है. लेकिन 11 करोड़ में से शायद ही कोई मांकड़िया आदिवासी ऐसा होगा जिसे इसका लाभ मिला हो.
क्योंकि मांकड़िया को इन योजनाओं के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती या फिर तकनीकि कारणों से भी वे इन योजनाओं से वंचित रह जाते है.
46 प्रतिशत का जंगलों में घर
46 प्रतिशत यानि लगभग मांकड़िया की आधी आबादी आज भी जंगलों में ही रहती है. इस बारे में मिली जानकारी के मुताबिक 56 प्रतिशत आदिवासियों को ये कहकर विस्थापित किया गया की इन्हें जंगली जानवरों से खतरा है.
35 प्रतिशत आदिवासी बने मजदूर
राज्य के मयूरभंज ज़िले के निवासी रैबारी मांकिडी ने कहा, “ हम पहले जंगलों से मिली लताओं और बेलों की छाल से रस्सी बनाने का कार्य करते थे. लेकिन अब फॉरेस्ट गार्ड हमें जंगलों में नहीं आने देता. जिसके कारण हमें मजबूरन मजदूरी और खेती का कार्य करना पड़ता है.
यहीं कारण है की सिर्फ अभी 35 प्रतिशत ही लोग मजदूरी कर रहे हैं.
मनरेगा के अंतर्गत काम करने वाले आदिवासी मजदूरों को सहीं समय पर पैसे भी नहीं दिए जाते और उन्हें दूसरी नौकरी ढूंढ़ने के लिए मजबूर किया जाता है.
इनकी जनसंख्या केवल 2000 ही बची है. जिसके कई कारण हो सकते है. लेकिन इनमें मुख्य कारण है. नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि, कुपोषण और रोज़गार में कमी.