स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानियों में से एक नाम है जीतराम बेदिया, जिनका जन्म 30 दिसंबर 1802 को वर्तमान झारखंड की राजधानी रांची के ओरमांझी प्रखंड के गगारी गांव में हुआ था। उनका जीवन आदिवासी समाज के लिए संघर्ष, बलिदान और प्रेरणा का प्रतीक है। उनके संघर्ष ने न केवल झारखंड, बल्कि पूरे भारत के स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी।
प्रारंभिक जीवन और परिवार
जीतराम बेदिया का जन्म एक गरीब आदिवासी परिवार में हुआ। उनके पिता, जगतनाथ बेदिया, भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ थे और उनका नाम क्षेत्र में विद्रोहियों के रूप में लिया जाता था। जीतराम बेदिया के परिवार ने हमेशा शोषण के खिलाफ आवाज उठाई और यही कारण था कि वे भी छोटी उम्र से ही अन्याय के खिलाफ खड़े हो गए। अपने पिता की मौत के बाद, जीतराम ने आदिवासी समाज की बेहतरी और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष शुरू किया।
1857 के विद्रोह में भागीदारी
1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इस विद्रोह ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ पूरे भारत में एक विशाल आंदोलन का रूप लिया। इस समय जीतराम बेदिया ने झारखंड के आदिवासी समुदाय को संगठित किया और अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत की। वह टिकेत उमराव सिंह, शेख भिखारी और अन्य आदिवासी नेताओं के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ सक्रिय रूप से लड़े।
अंग्रेजों के खिलाफ छापामार युद्ध
जीतराम बेदिया छापामार युद्ध कला में माहिर थे। उनका यह कौशल ब्रिटिश सेना के लिए बड़ा खतरा बन गया था। जीतराम ने कई बार अपने साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों पर धावा बोला और उन्हें बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाया। उनका युद्ध कौशल और साहस अद्वितीय था, जिसके कारण अंग्रेजी हुकूमत उन्हें पकड़ने के लिए कड़ी मेहनत करती थी।
8 जनवरी 1858 को टिकेत उमराव और शेख भिखारी को पकड़कर अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया। लेकिन जीतराम बेदिया ने अपने आंदोलन को जारी रखा और कभी भी अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया। वह छापामार युद्ध में लगातार ब्रिटिश सेना को हराते रहे और उनका आतंक बढ़ता गया।
शहादत और बलिदान
23 अप्रैल 1858 को जीतराम बेदिया और उनके साथियों को अंग्रेजों ने गगारी और खटंगा गांव के बीच घेर लिया। इसके बाद अंग्रेजों ने लगातार गोलियां बरसाई और उन्हें आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया। लेकिन जीतराम बेदिया ने आत्मसमर्पण से इंकार करते हुए यह कहा कि “जिंदा पकड़े जाने से बेहतर है मरना।” इसके बाद मेजर मेकडोनाल्ड के आदेश पर घोड़ा सहित जीतराम बेदिया को गोली मारी गई और उन्हें घोड़े के साथ ही दफना दिया गया। इस स्थान का नाम बाद में “घोड़ा गढ़ा” पड़ा, जिसे आज भी उनकी शहादत की याद दिलाने वाला स्थल माना जाता है।
विरासत और सम्मान
जीतराम बेदिया का बलिदान आज भी झारखंड और भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमर है। उनके संघर्ष और शहादत ने पूरे देश को यह संदेश दिया कि स्वतंत्रता के लिए आत्मसमर्पण नहीं किया जा सकता। उनका जीवन आदिवासी समाज के अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की प्रेरणा है।
आज भी 30 दिसंबर को उनकी जयंती पर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं और उनकी वीरता को श्रद्धांजलि दी जाती है। उनके योगदान को मान्यता देने के लिए उन्हें देशभर में श्रद्धा और सम्मान से याद किया जाता है।
जीतराम बेदिया के संघर्ष और बलिदान की गाथा भारत के स्वतंत्रता संग्राम का अमूल्य हिस्सा है, और उनकी वीरता को हमेशा याद रखा जाएगा।