चकमा और हजोंग समुदाय बांग्लादेश के चटगांव पहाड़ी इलाकों (CHT) में रहने वाले आदिवासी समूह हैं, जो मुख्य रूप से धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यक हैं। चकमा समुदाय मुख्यतः बौद्ध धर्म का पालन करता है, जबकि हजोंग समुदाय हिंदू धर्म से जुड़ा है। विभाजन के बाद से ही इन समुदायों को उनके धर्म, भाषा और सांस्कृतिक पहचान के कारण बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी और सरकारी नीतियों द्वारा व्यवस्थित रूप से हाशिये पर धकेला गया है।
1947 के विभाजन के दौरान, चटगांव पहाड़ी क्षेत्र की 97.2% गैर-मुस्लिम जनसंख्या के बावजूद इसे पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में शामिल कर दिया गया। यह ऐतिहासिक निर्णय इन समुदायों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दमन का आधार बन गया। पाकिस्तानी शासन के दौरान कप्ताई बांध के निर्माण और 1971 में बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम के बाद उनकी स्थिति और बदतर हो गई।
आज, चकमा और हजोंग समुदाय धार्मिक असहिष्णुता, भूमि विवाद, सैन्यीकरण, और हिंसा का सामना कर रहे हैं। इनकी पहचान और अधिकारों को लेकर सरकार और बहुसंख्यक बंगाली मुस्लिम समुदाय का रवैया अक्सर उदासीन या दमनकारी रहा है। 1997 में हुए शांति समझौते के बाद भी उनकी समस्याओं का समाधान नहीं हो पाया है, और वे अपनी भूमि, अधिकार और सांस्कृतिक अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं।
यह लेख चकमा और हजोंग समुदायों के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, वर्तमान चुनौतियों और उनके अस्तित्व पर पड़ने वाले प्रभाव का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करता है। साथ ही, यह बांग्लादेश सरकार और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की भूमिका की भी समीक्षा करता है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- 1947 का विभाजन
भारत के विभाजन के बाद CHT क्षेत्र में 97.2% आबादी गैर-मुस्लिम थी, पाकिस्तान को सौंप दिया गया। इस निर्णय ने चकमा और हजोंग समुदायों के व्यवस्थित हाशियाकरण की नींव रखी। विभाजन के बाद उनका सामाजिक-राजनीतिक बहिष्कार और बढ़ गया। - कप्ताई बांध का निर्माण (1960)
पाकिस्तानी शासन के दौरान बनाए गए इस बांध ने 100,000 से अधिक चकमा लोगों को विस्थापित कर दिया और उनकी 40% कृषि योग्य भूमि जलमग्न हो गई। इनमें से कई लोग भारत चले गए, जहां वे आज भी बिना नागरिकता के अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में शरणार्थी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। - बांग्लादेश स्वतंत्रता संग्राम (1971)
चकमा और हजोंग समुदायों ने बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम का समर्थन किया, लेकिन स्वतंत्रता के बाद इन्हें बहुसंख्यक बंगाली-मुस्लिम आबादी द्वारा हाशिये पर धकेल दिया गया। 
चकमा और हजोंग समुदायों की समस्याएं
- धार्मिक उत्पीड़न
इन समुदायों को धार्मिक भेदभाव, मंदिरों की तोड़फोड़, जबरन धर्म परिवर्तन और धार्मिक स्वतंत्रता से वंचित किया जाता है। एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट्स में ऐसे कई मामले दर्ज हैं, जैसे 2012 में रामू में बौद्ध मंदिरों को जलाना। - जातीय भेदभाव और सैन्यीकरण
चटगांव पहाड़ी क्षेत्र में 1980 के दशक में शांति बहिनी (PCJSS का सशस्त्र संगठन) के नेतृत्व वाले विद्रोह के बाद से भारी सैन्यीकरण किया गया है। सरकारी सैन्य उपस्थिति अक्सर तनाव बढ़ाती है और आदिवासी समुदायों को हाशिये पर धकेलती है। - भूमि विवाद और जबरन बेदखली
बंगाली बसने वालों द्वारा भूमि हथियाने की समस्या बनी हुई है, जिसे 1980 के दशक की बंगाली बसावट नीति जैसी सरकारी नीतियों का समर्थन मिलता है। आदिवासी भूमि मालिकों को अवैध कानूनी दावों या बलपूर्वक उनकी जमीन से बेदखल कर दिया जाता है। - महिलाओं के खिलाफ हिंसा
चकमा और हजोंग समुदाय की महिलाएं अक्सर यौन हिंसा का शिकार होती हैं। कपाइंग फाउंडेशन की 2014 की रिपोर्ट में बलात्कार, अपहरण और हमले के कई मामले दर्ज किए गए, जिनमें से अधिकांश में अपराधी दंड से बच गए। - 1997 शांति समझौते का कार्यान्वयन न होना
1997 के चटगांव पहाड़ी इलाकों के शांति समझौते का उद्देश्य विद्रोह समाप्त करना और आदिवासी अधिकारों की बहाली था। हालांकि, सरकार ने सैन्य शिविर हटाने, भूमि विवाद सुलझाने और स्वायत्तता प्रदान करने जैसे वादों को अब तक पूरा नहीं किया। 
वर्तमान स्थिति और अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया
- बांग्लादेश का रुख
सरकार व्यवस्थित उत्पीड़न के आरोपों को अक्सर खारिज करती है और दावा करती है कि CHT में विकास परियोजनाएं सभी समुदायों के लिए समान रूप से लाभकारी हैं। हालांकि, स्वतंत्र अध्ययन और रिपोर्ट्स इन दावों का खंडन करती हैं। - भारत की भूमिका
भारत हजारों चकमा और हजोंग शरणार्थियों की मेजबानी करता है, लेकिन उन्हें सीमित अधिकार देता है। 2017 में, भारतीय सरकार ने अरुणाचल प्रदेश में चकमा और हजोंग शरणार्थियों को नागरिकता देने का फैसला किया, जिसका स्थानीय आदिवासी समूहों ने विरोध किया। - संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार संगठन
संयुक्त राष्ट्र के स्थायी मंच और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे संगठन बार-बार बांग्लादेश से आदिवासी अधिकारों का सम्मान करने का आग्रह करते हैं। हालांकि, अंतरराष्ट्रीय दबाव का अब तक मामूली प्रभाव ही पड़ा है। 
संदर्भ और आंकड़े
- जनसंख्या आँकड़े: 2011 की बांग्लादेश जनगणना के अनुसार, आदिवासी लोग कुल जनसंख्या का लगभग 1.8% हैं, जिनमें से अधिकांश CHT में रहते हैं।
 - कप्ताई बांध का प्रभाव: 100,000 से अधिक चकमा परिवार विस्थापित हुए (एमनेस्टी इंटरनेशनल रिपोर्ट, 1982)।
 - हिंसा के मामले: 2013-2017 के बीच CHT में 300 से अधिक मानवाधिकार उल्लंघन के मामले दर्ज हुए (कपाइंग फाउंडेशन)।
 - संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट: 2021 की UNHRC रिपोर्ट में CHT में स्वायत्तता की कमी और भूमि विवादों को उजागर किया गया।
 
चकमा और हजोंग समुदाय बांग्लादेश में धार्मिक असहिष्णुता, जातीय भेदभाव और दोषपूर्ण सरकारी नीतियों के कारण व्यवस्थित उत्पीड़न का शिकार बने हुए हैं। 1997 शांति समझौते को लागू करने और आदिवासी अधिकारों की रक्षा में बांग्लादेश सरकार की विफलता ने इन समुदायों को और अलग-थलग कर दिया है। जबकि अंतरराष्ट्रीय संगठनों और भारत जैसे पड़ोसी देशों ने इस संकट को हल करने के लिए कदम उठाए हैं, न्याय, समानता और उनकी सांस्कृतिक पहचान की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए निरंतर प्रयासों की आवश्यकता है।
कार्य योजना
- 1997 के शांति समझौते का पूर्ण कार्यान्वयन।
 - आदिवासी भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए कानूनी सुधार।
 - संयुक्त राष्ट्र और ASEAN के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय दबाव।
 - भारत में विस्थापित चकमा और हजोंग समुदायों के लिए सुरक्षा और पुनर्वास पहल।
 
सार्थक हस्तक्षेप इन समुदायों के लिए शांति और गरिमा का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।

                        
                        
                        
                        
                        
                        
                        



