भगत सिंह से पहले बिरसा मुंडा का रातोंरात कर दिया था अंतिम संस्कार

नौ जून, 1900। झारखंड के इतिहास में यह तारीख दर्ज है। इसी दिन धरती आबा बिरसा मुंडा रांची के नवनिर्मित जेल में अंतिम सांस ली थी। तब भी मौसम ऐसा ही जानलेवा था। ब्रिटिश अधिकारियों ने हैजा से मृत्यु का कारण बताया। आनन-फानन में पोस्टमार्टम किया गया। बिरसा के अनुयायियों को भरोसा था-बिरसा मर नहीं सकते। वे आएंगे। जरूर आएंगे। तब धरती आबा की उम्र महज 25 साल थी। फरवरी 1900 में वे अंतिम बार गिरफ्तार हुए थे। इसके बाद उन्हें जेल में डाल दिया गया। बीस मई को उनकी तबीयत खराब हुई। इसके बाद स्थिति में सुधार नहीं हुआ और अंतत: नौ जून को उनका निधन हो गया। कहीं-कहीं तीन जून भी जिक्र है। पर, सबसे बड़ी बात यह थी कि इस युवा से ब्रिटिश सरकार बहुत डरी हुई थी। दिन भर ब्रिटश सरकार कर्मकांड करती रही और अंत में फैसला लिया कि रात होते हुए शव को जला दिया जाएगा। तब, रांची में इतनी आबादी नहीं थी। कोकर के पास डिस्टिलरी पुल के पास रात में उनके शव को जला दिया गया। ब्रिटिश सरकार ने मुंडा रीति-रिवाज से भी अंतिम संस्कार करना उचित नहीं समझा। डिस्टिलरी पुल से बहती नदी में राख को बहा दिया गया, ताकि कोई सबूत न बचे। बिरसा मुंडा संभवत: पहले युवा विद्रोही थे, जिनके शव को भी देना ब्रिटिश सरकार ने उचित नहीं समझा। इसके 22 साल बाद सरदार भगत सिंह व उनके साथियों के साथ भी ब्रिटिश सरकार ने ऐसा ही क्रूर व्यवहार किया।
जल, जंगल व जमीन का संघर्ष
ब्रिटिश सरकार के खिलाफ उलगुलान करने वाले बिरसा मुंडा 15 नवंबर, 1875 को खूंटी जिले के उलिहातु में जन्मे थे। उनके आंदोलन की कालावधि 1895 से 1900 तक ही थी, लेकिन इन पांच सालों में रांची ही नहीं, सीमावर्ती जिलों में भी स्वाधीनता की चेतना जगाने का काम किया और इसका दूरगामी असर भी हुआ। बिरसा मुंडा ने मुंडाओं में जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए बलिदान देने के लिए प्रेरित किया। गांव-गांव सामाजिक चेतना और स्वाभिमान की ज्योति जलाई। स्वाधीनता का स्वर बुलंद किया। क्योंकि इसके पूर्व बहुतेरे मुंडाओं ने ईसाई धर्म अपनाया ताकि उनकी जमीन की रक्षा हो सके। कई फादर इन्हें कानूनी सहायता भी उपलब्ध कराते, लेकिन न्याय नहीं मिल पा रहा था। इसलिए, ईसाई धर्म के प्रति भी मोहभंग हो गया। अदालत ने भी इनकी कोई मदद नहीं की। चारों तरफ से जब निराशा हाथ लगी तो सिवाय ब्रिटिश सरकार से आमना-सामना करने के कोई विकल्प नहीं बचा था। मुंडा समाज को एक युवा मिल गया था जो पहले धार्मिक आंदोलन चलाया और बाद में जल, जंगल, जमीन के लिए उठ खड़ा हुआ। इसी बीच इस इलाके में दो बार अकाल ने भी दस्तक दे दी-1896-97 व 1899-1900। इस अकाल में भी बिरसा मुंडा ने गांव-गांव में लोगों की मदद की। इससे भी बिरसा के प्रति मुंडा समाज का विश्वास दृढ़ होता गया और उन्हें बिरसा में मसीहा दिखाई दिया। बिरसा मुंडा धरती आबा कहे जाने लगे। इसलिए, जब नौ जून 1900 को बिरसा ने रांची जेल में शहादत दी तो बिरसा के अनुयायियों को यह विश्वास था कि बिरसा फिर लौटकर आएंगे। इस विश्वास ने गांवों में आंदोलन को कभी ठंडा होने नहीं दिया। ब्रिटिश सरकार को भी यह बात समझ में आ गई कि छोटानागपुर में शासन करने के लिए इनके पारंपरिक अधिकारों की रक्षा जरूरी शर्त होगी। इसका नतीजा यह हुआ कि ब्रिटिश सरकार ने 1908 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम को लागू किया। इस अधिनियम से मुंडाओं के अधिकारों की रक्षा हुई। जिस जेल में बिरसा मुंडा ने अंतिम सांस ली, वह अब संग्रहालय बन गया है। जहां अंतिम संस्कार किया गया, वहां अब समाधि बना दी गई है। पर, इस धरती आबा ने बिरसाइत धर्म भी चलाया था, लेकिन आज उनके धर्म के मानने वालों की संख्या बहुत कम रह गई है। बिरसा ने जो सुधारवादी आंदोलन चलाए, उसको भी अब दरकिनार कर दिया गया। अब लोग केवल बिरसा मुंडा का नाम जपते हैं, उनके मार्ग पर चलने का जोखिम नहीं उठाते।

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