बिरसा आंदोलन के 125 साल बाद आदिवासियों के लिए क्या बदला?

बिरसा मुंडा: कल आज और कल-1

कृति मुण्डा नाम है उसका, घर के चौथे मंजिल में लगभग बंद सी रहती है. दिन में शायद ही कभी निकलती है. सबसे खास बात है उसे निकलने नहीं दिया जाता है. अब उसे आदत सी हो गयी है कि अब उसे निकलने की जरुरत भी नहीं पड़ती है.

वो सिर्फ मुण्डा बोल सकती है, हिंदी नहीं समझती, अंग्रेजी और अन्य भाषा दूर की बात है. जिस ईमारत के चौथे तल्ले में वो रहती है, वो है दिल्ली का एक गाँव जो अब शहर में तब्दील हो चुका है, नाम है — मुनिरका’. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक कहावत है — “जे.एन.यू. से निकल कर एक छात्र या तो अमरीका जाता है, या मुनिरका जाता है”, सत्यता आप खुद ही जांचें लेकिन लगभग 50% रेंटेड घरों में आपको जे.एन.यू. के वर्तमान और पूर्व छात्र मिलेंगे.

ये वर्ष रहा होगा 2011-12 के आसपास का, संयोग से हमारी एक साथी विभा नाग जो मुण्डा भाषा समझती थी उसी ईमारत के दूसरे मंजिल पर एक कमरा भाड़े में लेकर रहने लगी. कुछ वक्त बीतने के बाद पता चला कि उस घर में एक आदिवासी लड़की काम करती है या यूँ कहें की ‘आया’ की काम करती है जिसे सामान्य भारतीय हिकारत वाली नौकरी समझता है.

शायद अभी थोड़ा सा अधिक सभ्य शब्द ‘घरेलू कामगार’ की रचना हुई है. भविष्य में और सभ्य होने की गुंजाइश है, जैसे इस नौकरी को आने वाले समय में ‘डी.एम.पी.जे.ए.’ विशेषण से नवाजा जा सकता है. डी.एम.पी.जे.ए., यानि डोमेस्टिक मल्टी-परपस जॉब अटेंडेंट. तन ऊपर-ऊपर संवरते रहे, पर मन में कुछ बदलाव नहीं, आपके साथ सलूक गुलामों वाला ही होता रहेगा. खैर! घर में ऊपर नीचे होने के दौरान विभा ने देखा कि ये लड़की तो आदिवासी लग रही है तो मौका देखकर धीरे से कभी-कभी बात करने लगी.

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बात-चीत के क्रम में पता चला कि कृति मुंडा न तो हिंदी समझती है और न ही अंग्रेजी. दरअसल कृति ने कभी पढाई भी नहीं की है. खूंटी जिले के जंगलों के बीच से बिलकुल नहीं पढ़ी लिखी लड़की/ लड़का के ऐसे होने की पूरी सम्भावना है.

शुरू में कृति बिलकुल बात नहीं करना चाही, संकुचित और डरी हुई थी. लेकिन धीरे-धीरे खुलने लगी और अपनी कहानी बताने लगी. उसके कहा की दो साल पहले उसके जीजा के दोस्त ने उसके जीजा और दीदी को बताया कि कृति की पढ़ाई-लिखाई तो हुई नहीं है लेकिन दिल्ली में जाकर अच्छे पैसे कमा सकती है तथा घर और अपनी हालत सुधार सकती है.

कृति के घर में उसके माँ-बाप के अलावा दो भाई हैं. बड़ी दीदी की शादी पहले ही हो चुकी है. पिता के कमाई का ज्यादातर हिस्सा शराब के नशे में जाता है और परिवार बड़ी मुश्किल से चलता है. माँ गृहिणी है. भाई लोग 12-15 साल के हैं और पढ़ाई कर रहे हैं. एक तरीके से एक अनपढ़ दीदी के कंधे पर घर के खर्चे और छोटे भाइयों के पढ़ाई की जिम्मेवारी है.

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कृति मुंडा के पास आधार कार्ड है, कोई बैंक खाता नहीं है एक बात है लेकिन महीने की सारी कमाई इनके जीजाजी के दोस्त के खाता में जमा होता है. खाता में कितना जमा होता है, कब जमा होता है उसकी जानकारी कृति को नहीं है, उसे ये भी नहीं पता है कि कमाई के ये पैसे इनके घर तक पहुँचता है या नहीं।

अब स्थिति ऐसी है कि वो घर जाना चाहती है, छुट्टी तो मिलेगी नहीं, इसलिए वो किसी दिन भाग जाना चाहती है, लेकिन उसे नहीं पता कि घर कैसे जायेंगे, ट्रेन का टिकट कहाँ से मिलेगा?

भारत जब ब्रिटिश उपनिवेश था उस समय के बारे में के. सुरेश कुमार सिंह “बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन” में बताते हैं कि 1864 से 1867 तक चाय बागान में काम पर ले जाये जाने वाले मजदूरों की संख्या लगभग 12,369 थी. अभी, सिर्फ़ झारखण्ड से ही आया कमाने (घरेलू कामगार) दिल्ली गए हुए महिलाओं की संख्या लगभग 2 लाख तक आंकी जाती है.

चाय बागानों में मजदूर के रूप में ले जाने वाले स्थानीय बाजारों और हाटों में सक्रिय रहते थे. परित्याग किये हुए पतियों, पत्नियों, निराश प्रेमी, प्रेमियों, पतियों के व्यवहार से असंतुष्ट पत्नियों, गृह वधुओं और अविवाहित लड़कियों को तरह-तरह के प्रलोभन में फंसाने की कोशिश करते थे. इतना ही नहीं कुछ युवक-युवतियों को लालच फिर चोरी कर के ले जाने वाले एजेंटों के सुपुर्द कर देते थे और ऐसे कामों में मुंडा आदिवासी भी पीछे नहीं थे. अभी के आंतरिक उपनिवेशवाद के दौर में ज्यादा कुछ नहीं बदला है, सरकार की लगातार असफलताओं से निराश युवक-युवतियां अपने राज्य से पलायन करके रोजगार की तलाश में शहर की और भाग रहे हैं, कुछ माँ-बाप-भाई से लड़कर, कुछ पति से लड़कर, कुछ आर्थिक तंगियों से निराश होकर।

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इस भागम-भाग और जल्द पैसे कमाने और रोजगार के लालच में युवक और युवतियाँ तमाम किस्म के अपराध के शिकार हो रहे हैं, जैसे — आत्महत्या, बलात्कार, वेश्यालयों में बेच दिया जाना, शारीरिक अंगों के ट्रैप में फंसना इत्यादि.

बिरसा के आंदोलन के लगभग 125 सालों में आदिवासियों के लिए क्या बदला है? पहले भारत के साथ आदिवासी भी उपनिवेशवाद का दंश झेल रहे थे, अब आंतरिक उपनिवेशवाद के शिकार हैं.

दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई, बंगलोर के हर घर को झारखण्ड, ओडिशा, छतीसगढ, पश्चिम बंगाल के आदिवासियों के रूप में सस्ता और शोषण किये जा सकने वाले मजदूर चाहिए, आया चाहिए, सेक्स स्लेव चाहिए, और तो और इनके शारीरिक अंगों को भी निकालकर इसका व्यापार किया जा सके.

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