बड़का शादी : पुरखों के साथ जीवित परंपराएं


पौष माह की नवमी तिथि (गाँव के अनुसार दिन भिन्न हो सकता है) को मनाया जाने वाला यह त्योहार उरांव परंपरा में “हड़गड़ी” या ” कोहा बेंजा (बड़का शादी)” के नाम से प्रसिद्ध है। इसे त्योहार इसलिए कहा जाता है क्योंकि आदिवासी मान्यता के अनुसार, मृत्यु के बाद व्यक्ति समाप्त नहीं होता, बल्कि वह पुरखों में शामिल होकर हमारे साथ ही रहता है। इस परंपरा में पुरखों का प्रतीकात्मक विवाह कराया जाता है।

ढांक की धुन से पुरखों को न्योता
त्योहार से एक दिन पहले रात में गाँव का गोडाइत (ढांक वादक) पूरे उत्साह के साथ ढांक बजाकर पुरखों को आमंत्रित करता है। इस प्रक्रिया को “गाँव उठाना” भी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस धुन पर पुरखे नाचते हैं। वादक को ध्यान रखना होता है कि वह पीछे न मुड़े, अन्यथा उसकी ढांक फट जाएगी।

पूजा-पद्धति और गाँव के नियम
त्योहार के दौरान “कुंडी” (विशाल पत्थर) पर जाकर पैर धोए जाते हैं। पुरखों को उरद की खिचड़ी (बिना नमक की), फूल, चावल, सिंदूर, अगरबत्ती, हड़िया या शराब (यदि पुरखे इसे पसंद करते थे), और पैसे अर्पित किए जाते हैं।

See also  मौत के बाद मनुष्य के साथ पाँच वस्तुएँ साथ जाती है

गाँव की परंपराओं के अनुसार, मुख्य कुंडी जो गाँव से दूर होती है, वहाँ पाहन (पुजारी) और मुंडा (गाँव का मुखिया) पत्थर को धोकर इन्हीं सामग्रियों को अर्पित करते हैं।

पुरानी परंपरा और पत्थर गाड़ने की प्रथा
पहले आदिवासी समाज में पुरखों के प्रतीक स्वरूप पत्थर गाड़ने की परंपरा थी, जो अब समाप्तप्राय है। प्राचीन गड़े पत्थरों की पूजा की जाती है। हजारों वर्षों से चली आ रही यह परंपरा आज भी कुछ स्थानों पर जीवित है।


पुरियो गाँव के कृष्णा भगत बताते हैं कि पहले प्रत्येक घर से पुरखों की पहचान के लिए झंडा निकाला जाता था। मृत व्यक्तियों की अस्थियाँ बाँस की टोकरी (नाचुआ) में रखी जाती थीं, और ढोल, ढांक, व नगाड़े की धुन के साथ नाचते हुए कुंडी तक जाया जाता था। यह दृश्य किसी बारात जैसा प्रतीत होता था। हालाँकि, आज यह परंपरा मात्र औपचारिकता बनकर रह गई है।

गाँव बनाना
त्योहार के अगले दिन सूअर, भेड़ आदि जानवरों की बलि दी जाती है, जिसे “गाँव बनाना” कहा जाता है। बलि पुरखों को समर्पित की जाती है। इसके बाद बलि का मांस पूरे गाँव में बाँटा जाता है। गांव बनाने का अर्थ रहने वाले क्षेत्र को बुरे लोगों के प्रभाव या बुरी प्रेतों से बचाया जाना है।

See also  जोहार क्या है? जानिए

यह परंपरा न केवल उरांव समाज की सांस्कृतिक धरोहर है, बल्कि उनके जीवन दर्शन और पुरखों के प्रति श्रद्धा का प्रतीक भी है। हड़गड़ी बाकी आदिवासी समाज में भी प्रचलित है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

10 most Expensive cities in the World धरती आबा बिरसा मुंडा के कथन