स्वशासन व्यवस्था और पेसा कानून: वर्तमान बहस पर विचार

भारत की परंपरागत स्वशासन व्यवस्थाएं, जैसे माझी परगना, मनकी मुंडा, ढोकलो सोहोर, और पड़हा राजा, केवल आदिवासी समाज की सांस्कृतिक धरोहर ही नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक स्वायत्तता के उत्कृष्ट उदाहरण भी हैं। इन व्यवस्थाओं का इतिहास राजा-महाराजाओं और उपनिवेशवाद के दौर से लेकर वर्तमान भारतीय संविधान तक जुड़ा हुआ है। 1996 में लागू पेसा (पंचायत्स एक्सटेंशन टू शेड्यूल्ड एरियाज) कानून इन्हीं व्यवस्थाओं को कानूनी और संवैधानिक मजबूती प्रदान करने का एक आधुनिक प्रयास है।

पेसा कानून: स्वशासन की संवैधानिक सुरक्षा

पेसा कानून, 1996, का उद्देश्य अनुसूचित क्षेत्रों में पारंपरिक ग्राम पंचायतों और स्वशासन व्यवस्था को अधिकार देना है। इस कानून के तहत आदिवासी क्षेत्रों में पारंपरिक संस्थाओं को मान्यता दी गई और उन्हें निर्णय लेने, संसाधन प्रबंधन, और विकासात्मक योजनाओं में स्वायत्तता प्रदान की गई।

पेसा के मुख्य प्रावधान

  1. ग्राम सभा का अधिकार: ग्राम सभा को निर्णय लेने, भूमि अधिग्रहण, खनन और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में सर्वोच्च अधिकार दिया गया।
  2. संविधान के अनुच्छेद 243M और 243ZC: ये अनुच्छेद अनुसूचित क्षेत्रों में स्थानीय स्वायत्तता सुनिश्चित करते हैं।
  3. संस्कृति और परंपरा का संरक्षण: पारंपरिक व्यवस्थाओं को बनाए रखने और उनके अनुसार निर्णय लेने का अधिकार दिया गया।
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झारखंड में पेसा और वर्तमान बहस

झारखंड जैसे आदिवासी बहुल राज्य में माझी परगना, मनकी मुंडा, और पड़हा राजा जैसी व्यवस्थाएं लंबे समय से गांवों के प्रशासनिक ताने-बाने का हिस्सा रही हैं। पेसा कानून ने इन व्यवस्थाओं को संवैधानिक मान्यता देकर और मजबूत किया। लेकिन वर्तमान में सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकार, स्वघोषित शिक्षाविद, और राजनीतिक समूह इन व्यवस्थाओं और पेसा कानून को जातिगत और सांप्रदायिक मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

जातिगत मानसिकता का हानिकारक प्रभाव

आज यह देखा जा रहा है कि पेसा कानून को जातिवादी दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। JPSC और JSSC की तैयारी करवाने वाले कुछ शिक्षक और राजनीतिक दल इसे जाति और जनजाति के मुद्दे से जोड़कर भ्रम फैला रहे हैं। यह न केवल संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है, बल्कि आदिवासी समाज की स्वायत्तता और उनकी परंपराओं को कमजोर करने का भी प्रयास है।

पेसा कानून पर उठते सवाल और उनकी निराधारता

कुछ लोग, जैसे शैलेंद्र महतो और कुड़मी, मंडल, गोप समुदाय के नेता, पेसा कानून को अल्पमत और बहुमत की बहस के दायरे में ला रहे हैं। यह तर्क देना कि बहुसंख्यक आबादी के आधार पर कानून लागू होना चाहिए, संवैधानिक रूप से गलत है।

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अल्पमत और बहुमत का तर्क

  1. कश्मीर और केरल: क्या मुस्लिम बहुलता के कारण वहां शरिया कानून लागू होना चाहिए?
  2. नॉर्थ ईस्ट: क्या ईसाई बहुलता के कारण बाइबल के अनुसार शासन होना चाहिए?
  3. पंजाब: क्या सिख बहुलता के कारण खालिस्तानी शासन व्यवस्था लागू होनी चाहिए?

संविधान स्पष्ट करता है कि किसी भी कानून या प्रावधान को अल्पमत या बहुमत के आधार पर लागू नहीं किया जा सकता। पेसा कानून भी इनसे अलग नहीं है। यह किसी जाति या धर्म का नहीं, बल्कि आदिवासी स्वशासन का प्रतीक है।

पेसा कानून और झारखंड की पहचान

झारखंड की आत्मा उसकी परंपरागत व्यवस्थाओं और पेसा कानून के तहत मिले अधिकारों में है। माझी परगना, मनकी मुंडा, और पड़हा राजा व्यवस्था केवल प्रशासनिक प्रणालियां नहीं, बल्कि झारखंड के आदिवासी समाज की पहचान और गौरव हैं।

पेसा कानून का महत्व

  1. संसाधन प्रबंधन: खनन, वन और जल जैसे संसाधनों पर ग्राम सभा का अधिकार।
  2. संस्कृति और परंपरा का संरक्षण: परंपरागत व्यवस्थाओं को संवैधानिक मान्यता।
  3. स्वशासन की मजबूती: स्थानीय समस्याओं का स्थानीय स्तर पर समाधान।
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आवश्यकता: संवैधानिक जागरूकता

पेसा कानून और स्वशासन व्यवस्था को जातिगत और राजनीतिक बहसों से अलग रखना जरूरी है। झारखंड की जनता को अपने संवैधानिक अधिकारों और परंपराओं की रक्षा के लिए जागरूक होना होगा।

पेसा कानून 1996 और झारखंड की परंपरागत स्वशासन व्यवस्थाएं न केवल संविधान की भावना का सम्मान करती हैं, बल्कि आदिवासी समाज को सशक्त बनाती हैं। इन्हें जातिवाद और संकीर्ण मानसिकता से जोड़ना देश के लोकतांत्रिक ढांचे और आदिवासी समाज की गरिमा को ठेस पहुंचाने जैसा है। झारखंड को अपनी असली पहचान बनाए रखते हुए विकास की ओर बढ़ना चाहिए।

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