सम काइंड ऑफ़ ‘अफरमेटिव ऐक्शन’ संकुचित नहीं एक बृहत् सोच है

सम काइंड ऑफ़ ‘अफरमेटिव ऐक्शन’ लगभग सभी देशों में है जिसके तहत देश, राज्य, समाज, और गांव के समुचित विकास के लिए प्रयास किया जाता रहा है. कुछ भी नहीं तो बेरोजगारी भत्ता, बृद्धा पेंशन जैसी सुविधाएँ हैं. जिस दिन हरेक गांव, बस्ती, राज्य और देश अपना बाजार और विकास संभाल लेगा उस दिन सरकार की जरुरत नहीं होगी लेकिन व्यवहारिक रूप से ये सम्भव नहीं हो पाता है इसलिए सभी व्यक्ति अपने प्रतिनिधि का चुनाव कमोबेश प्रजातान्त्रिक तरीके से करते हैं जो गांव, राज्य और देश की समस्याओं का समाधान करे. विकास के तरीकों में बबासाहेब भीमराव आंबेडकर और महात्मा गाँधी का डिबेट महत्वपूर्ण हो जाता है. आंबेडकर चाहते थे औद्योगीकरण, शहरीकरण के द्वारा विकास, और महात्मा गाँधी जी ने ग्राम स्वराज की बात की थी. प्रजातान्त्रिक चुनावों के दृष्टिकोण से आंबेडकर आदिवासियों को वोट देने के योग्य भी नहीं माना था जबकि दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की बात की थी.

संविधान बनने के क्रम में संविधान सभा में जयपाल सिंग मुंडा के धमाकेदार भाषणों को लेकर आदिवासी समाज कमोबेश लहालोट ही है लेकिन क्या वास्तव में संविधान सभा में जयपाल सिंग मुंडा को बिना तैयारी के हिस्सा लेना चाहिए था एक महत्वपूर्ण प्रश्न है? अगर हिस्सा लिया तो क्या वो मानसिक, बौद्धिक रूप से तैयार थे? हिस्सा लेने के बहुत सारे मायने हो सकते हैं, जैसे कि आप स्वतंत्र भारत की संविधान निर्माण की प्रक्रिया को देखना समझना चाहते हैं, देश के नवनिर्माण में आपको हिस्सेदारी चाहिए इत्यादि. पूर्वोत्तर आदिवासी क्षेत्रों (ट्राइबल एरियाज) के नेता संविधान सभा का हिस्सा अपनी मांगों को मनवाने के लिए बोरदोलोई कमिटी रिपोर्ट के साथ आये, जिसका की पश्चमी, मध्य, और मध्य-पूर्व भारत के नेतृत्व में कमी महसूस होती है. पूर्वोत्तर के विकास और उनके अधिकारों पर बहुमूल्य योगदान और देश निर्माण में पूर्वोत्तर को जोड़ने के लिए गोपीनाथ बोरदोलोई को भारत रत्न भी दिया गया. कालांतर में असम एक बड़ा राज्य था लेकिन मणिपुर और त्रिपुरा जैसे प्रिंसली स्टेट भी अस्तित्व में थे. असम का प्रतिनिधित्व करने वाले काफी लोग थे लेकिन गोपीनाथ बोरदोलोई और जेम्स जोय मोहन निकोल्स रॉय का नाम सबसे ऊपर आता है. संविधान सभा में गिरिजा शंकर गुहा प्रिंसली स्टेट्स त्रिपुरा और मणिपुर को प्रतिनिधित्व कर रहे थे. पूरे पूर्वोत्तर इलाके को लेकर बोरदोलोई कमिटी जनता के पास जाकर बात-चीत की और 6 ठी अनुसूची की संकल्पना को अमली जामा पहनाया, जिसमें पारम्परिक संस्थानों की महत्ता और इनके प्रजातान्त्रिक चरित्र को समझा गया. सबकमिटि ने आदिवासी क्षेत्र के जंगल, जमीन, भाषा, जीवन और न्याय पद्धति, अलग परंपरा को सुरक्षा प्रदान करने पर जोर दिया. पूर्वोत्तर के आदिवासी क्षेत्र को संविधान सभा में ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट कौंसिल्स और ऑटोनोमस रीजनल कौंसिल्स के तहत शासन किये जाने पर सहमति बनी, साथ ही इन कौंसिल्स के द्वारा आदिवासियों की पृथक सांस्कृतिक पहचान, आर्थिक रूचि को सुरक्षित किया गया. गौरतलब बात है की संविधान सभा में इस बात का समर्थन जयपाल सिंग मुंडा ने भी किया था.

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जयपाल सिंग मुंडा का विरोधाभासी चरित्र गौर करने योग्य है कि जब पूर्वोत्तर में ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट और रीजनल कौंसिल्स को समर्थन दिए तो मध्य और मध्य पूर्वी भारत में वही संकल्पना की मांग क्यों नहीं की गयी? ‘आदिवासी’ पहचान की मांग ‘आदिवासी’ शब्द द्वारा ‘आदिवासियों’ के लिए बहुत महत्वपूर्ण था, है, और रहेगा लेकिन खेत में खेती हमेशा बरक़रार रहे उसके लिए सिर्फ हल नहीं मांगे जाते, बैल, जुँवाठ, फार की भी जरुरत होती है. स्वशासित प्रदेश बनने और बनाने के लिए पृष्ठभूमि तैयार की जाती है, तथ्यात्मक, और तुलनात्मक अध्ययन की जरुरत होती है जिसकी मुख्यतः कमी रही है. अंततः जो मिला वो है ‘जाति प्रमाण पत्र’ जिसको समाज वैज्ञानिकों की भाषा में ‘अफरमेटिव ऐक्शन’ या सामान्यतः ‘सांविधानिक प्रतिनिधित्व’ का परिणाम भी कहा जा सकता है. ग्राम स्वराज के सामानांतर स्वशासन के झुनझुने के रूप में पेसा (पंचायत एक्सटेंशन तो शेड्यूल्ड एरियाज) लागू करने की कवायद 1996 से जारी है लेकिन पेसा और आदिवासी क्षेत्रों के अपने विरोधाभासी चरित्र की वजह से ये भी सफल होता नहीं दिख रहा है.
पूर्वोत्तर के 6 ठी अनुसूची क्षेत्रों में आदिवासियों को ‘ट्राइबल सर्टिफिकेट’ दिए जाते हैं क्योंकि वो कभी भी जाति के हिस्से नहीं रहे हैं. उसी प्रकार मध्य भारत के आदिवासी कभी भी ‘जाति’ के हिस्से नहीं रहे, फिर भी इन्हें ‘जाति प्रमाण पत्र’ दिया जा रहा है, आखिर हो भी कैसे जब नीति-निर्धारकों में बौद्धिक परिष्क्रमण की गुंजाईश पार्टी से ऊपर कभी जा नहीं पाती.

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बहरहाल, मध्य भारत में ‘अफरमेटिव ऐक्शन’, जाति प्रमाण पत्र के रूप में जारी है. देश की हर जनता सरकार से उम्मीद किये बैठी रहती है कि उधर से कुछ स्कीम मिले, कुछ मदद मिले, आरक्षण मिले, कुछ कल्याणकारी काम हों, जबकि यही सामुदायिक और कल्याणकारी सोच अफरमेटिव ऐक्शन की तरह न हम कभी सोच पाते हैं और न ही कुछ करते हैं. जैसे — अनुसूचित जनजाति वर्ग में अफरमेटिव ऐक्शन का फायदा नौकरी के दृष्टिकोण से सबसे ज्यादा मीणा समुदाय ने उठाया है (उदाहरण के लिए संघ लोक सेवा आयोग का अंतिम चयन परिणाम देखें) लेकिन मीणा समुदाय अपने को छोड़कर अन्य आदिवासियों के विकास के लिए शायद ही कोई सकारात्मक कदम (अफरमेटिव एक्शन) उठाया हो. उसी प्रकार अन्य समुदायों पर भी निष्कर्ष साफ़-साफ़ निकाला जा सकता है. झारखण्ड में, सरकार के प्रयासों का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वालों में उरांव, मुण्डा, संताल, हो, और खड़िया नजर आएंगे. उरांव, मुण्डा, संताल, हो, और खड़िया समाज के साथी एक बार दिल पर हाथ रखकर अपने से सवाल करें कि आपने किस प्रकार के ‘अफरमेटिव ऐक्शन’ पर काम किया है? क्या आपने कभी झारखण्ड के बाकि 32-34 आदिवासी समुदायों को याद किया और उनके लिए काम किया? इतना ही नहीं, 2011 की जनगणना के अनुसार झारखण्ड में ईसाई बने हुए आदिवासियों की संख्या 4.3% है. फिलहाल ये 4.3% लगभग 13-15% आरक्षण का उपभोग कर रहे हैं. 2023 के मरांग गोमके पारदेशीय छात्रवृति योजना में ईसाई बने आदिवासियों का प्रतिशत कम से लगभग 40% है, वहीँ पर विधान सभा में इनकी सदस्य संख्या 13-15% के आसपास है. कमोबेस यही स्थिति सरकारी नौकरियों में भी है. एक सामान्य पैटर्न के तरीके से हमने देखा है कि पड़ोसी राज्य ओडिशा की सरकार ‘अफरमेटिव ऐक्शन’ को लिंग और समुदाय की समानता के सभी दृष्टिकोण से बेहतर परिणाम दिए हैं, लेकिन झारखण्ड की सरकार शिथिल है. आखिर किस तर्क के आधार पर 4.3% जनसँख्या वालों को आप 13-15% हिस्सेदारी देते हैं. जिस प्रकार से आप सवाल करते हैं कि 3-5% ब्राह्मण देश के 90% संसाधनों पर कब्ज़ा जमाये हुए हैं वही तर्क यहाँ भी लागू क्यों नहीं होता?

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सम काइंड ऑफ़ ‘अफरमेटिव ऐक्शन’ संकुचित नहीं एक बृहत् सोच है इसे ‘संकुचित’ हम सब मिलकर बना रहे हैं.

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