संथाली संविधान विमोचन के बीच सालखन मुर्मू का सवाल—आदिवासी गांवों में कहाँ है अनुच्छेद 21?

भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण और प्रतीकात्मक कदम उठाते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रपति भवन में संथाली भाषा और ओल-चिकी लिपि में भारत का संविधान जारी किया। इसे संथाली समाज और आदिवासी समुदायों के लिए ऐतिहासिक, गर्व और सम्मान का क्षण बताया जा रहा है।


इसी क्रम में आदिवासी (Sengel) सेंगेल अभियान के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व सांसद सालखन मुर्मू ने राष्ट्रपति को एक पत्र लिखकर इस पहल का स्वागत करते हुए आदिवासी स्वशासन व्यवस्था की गंभीर कमियों की ओर ध्यान आकृष्ट कराया है।


संविधान जारी होना ऐतिहासिक, लेकिन ज़मीनी हकीकत अलग


अपने पत्र में सालखन मुर्मू ने लिखा है कि संथाली भाषा में संविधान का जारी होना निश्चित रूप से ऐतिहासिक है, लेकिन संथाल समाज के भीतर आदिवासी स्वशासन व्यवस्था—विशेषकर माझी-परगना व्यवस्था—आज भी लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप नहीं है।
पत्र में कहा गया है कि:
– माझी-परगना (ग्राम प्रधान) की नियुक्ति जनतांत्रिक तरीके से नहीं, बल्कि वंशानुगत परंपरा के आधार पर होती है
– ग्राम सभा के सभी लोग मिलकर प्रतिनिधि नहीं चुनते
कई संथाल गांवों में संविधान के मौलिक अधिकार व्यवहार में लागू नहीं हैं
– अनुच्छेद 21 के उल्लंघन का आरोप

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पत्र में आरोप लगाया गया है कि आदिवासी स्वशासन के नाम पर कई इलाकों में:
– अंधविश्वास
– जबरन जुर्माना
– सामाजिक बहिष्कार
– डायन-प्रथा, प्रताड़ना और हत्याएं
जैसी घटनाएं जारी हैं, जो सीधे तौर पर संविधान के अनुच्छेद 21—मर्यादा के साथ जीने के मौलिक अधिकार—का उल्लंघन हैं।


पहले भी राष्ट्रपति भवन को कराया गया था अवगत


सालखन मुर्मू ने अपने पत्र में यह भी उल्लेख किया है कि:
16 मार्च 2022 को तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को इस विषय पर जांच और कार्रवाई के लिए पत्र लिखा गया था
उस पत्र पर संज्ञान भी लिया गया
इसके बाद 26 अगस्त 2022 को राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली में स्वयं जाकर द्रौपदी मुर्मू को ज्ञापन सौंपा गया
हालांकि, पत्र में यह भी कहा गया है कि अब तक कोई ठोस कार्रवाई होते हुए दिखाई नहीं दी है।

संवैधानिक और जनतांत्रिक सुधार की मांग


पत्र के माध्यम से राष्ट्रपति से नम्र लेकिन स्पष्ट आग्रह किया गया है कि:
“आदिवासी स्वशासन व्यवस्था में अभिलंब जनतांत्रिक और संवैधानिक सुधार की पहल की जाए।”
संगठन का कहना है कि जब संविधान अब संथाली भाषा में उपलब्ध है, तो उसकी आत्मा और मूल्यों का पालन ज़मीनी स्तर पर भी सुनिश्चित होना चाहिए।
संविधान केवल पुस्तक नहीं, व्यवहार भी है
संथाली में संविधान का प्रकाशन जहां एक ओर भाषाई और सांस्कृतिक सम्मान का प्रतीक है, वहीं यह खबर यह सवाल भी उठाती है कि
क्या आदिवासी समाज के भीतर सभी नागरिक वास्तव में संवैधानिक अधिकारों का लाभ उठा पा रहे हैं?

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यह मुद्दा अब केवल भाषा का नहीं, बल्कि लोकतंत्र, मानवाधिकार और सामाजिक सुधार का बनकर सामने आ रहा है।

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