प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोमवार (24 फरवरी) को असम के चाय उद्योग की 200वीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित ऐतिहासिक झुमुर महोत्सव झुमइर बिनंदिनी 2025 (Jhumoir Binandini 2025) में शामिल हुए। गुवाहाटी के सरुसजाई स्टेडियम में आयोजित इस कार्यक्रम में 8,000 से अधिक युवाओं ने पारंपरिक झुमुर नृत्य प्रस्तुत किया। प्रधानमंत्री के साथ 50 से अधिक देशों के राजदूत भी इस भव्य आयोजन के साक्षी बने।
राजनीतिक संदेश और लंबित मांगें
प्रधानमंत्री मोदी के इस दौरे को असम की चाय जनजाति समुदाय पर भाजपा की पकड़ मजबूत करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। यह यात्रा राज्य में तीसरी बार सत्ता में आने के बाद उनकी पहली यात्रा थी, जहां उनका जोरदार स्वागत किया गया। स्टेडियम में ढोल-नगाड़ों की गूंज और झुमुर नृत्य की लयबद्ध ताल ने माहौल को ऐतिहासिक बना दिया।
मोदी ने इस अवसर पर असम की सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने और बढ़ावा देने के अपने प्रयासों का उल्लेख किया। उन्होंने असमिया भाषा को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने और चराइदेव मैदाम (Charaideo Maidam) को यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किए जाने की सराहना की।
हालांकि, प्रधानमंत्री ने चाय जनजाति समुदाय की लंबे समय से लंबित मांगों—जैसे कि चाय बागान श्रमिकों की दैनिक मजदूरी को ₹351 तक बढ़ाने या उन्हें अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा देने—पर कोई ठोस घोषणा नहीं की। इस मुद्दे को कांग्रेस ने दिल्ली में आयोजित प्रेस वार्ता में उठाया था, लेकिन मोदी इस पर बिना कोई आश्वासन दिए लौट गए।
घोषणाएं और लाभ योजनाएं
प्रधानमंत्री ने चाय बागान श्रमिकों के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कुछ कदमों को रेखांकित किया:
- असम चाय निगम ने बोनस की शुरुआत की है, जिससे विशेष रूप से महिला श्रमिकों को लाभ होगा।
- 1.5 लाख गर्भवती महिलाओं को उनके चिकित्सा व्यय के लिए ₹15,000 की सहायता दी जा रही है।
- चाय जनजाति क्षेत्रों में 350 से अधिक आयुष्मान आरोग्य मंदिर बनाए जा रहे हैं।
- 100 मॉडल चाय बागान स्कूल पहले ही स्थापित हो चुके हैं और 100 अन्य निर्माणाधीन हैं।
- ओबीसी श्रेणी में चाय जनजाति समुदाय के युवाओं के लिए 3% सीटें आरक्षित की गई हैं।
- स्वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए चाय जनजाति समुदाय के भीतर उद्यमशीलता के प्रयासों का समर्थन करने के लिए ₹25,000 की सहायता दी जा रही है।
राजनीतिक दृष्टि से यह पहल महत्वपूर्ण है, क्योंकि असम विधानसभा चुनाव महज एक साल दूर हैं, और चाय जनजातियां 126 निर्वाचन क्षेत्रों में से लगभग 35 सीटों पर निर्णायक प्रभाव रखती हैं।
असम की चाय जनजाति: एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
चाय जनजाति समुदाय कौन हैं?
असम में “चाय जनजाति” शब्द उन बहु-सांस्कृतिक और बहु-जातीय समुदायों के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो चाय बागानों में श्रमिकों के रूप में काम करते हैं। ये समुदाय मूल रूप से झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से आए थे और 19वीं सदी में ब्रिटिश शासन के दौरान असम के चाय बागानों में काम करने के लिए बसाए गए थे।
इन श्रमिकों का प्रवास अक्सर मजबूरी में होता था और अत्यंत शोषणकारी परिस्थितियों में उन्हें काम करना पड़ता था। वे न केवल कम वेतन में जीवनयापन करते थे, बल्कि बागानों से बाहर जाने की स्वतंत्रता भी नहीं थी। ब्रिटिश शासन के दौरान कई श्रमिकों की असम की यात्रा के दौरान या चाय बागानों में बीमारियों से मौत हो गई। कईयों को बागानों से भागने की कोशिश करने पर क्रूर दंड भुगतना पड़ा।
आज उनके वंशज ऊपरी असम के तिनसुकिया, डिब्रूगढ़, शिवसागर, चराइदेव, गोलाघाट, लखीमपुर, सोनितपुर, उदलगुरी और बराक घाटी के कछार और करीमगंज जिलों में बसे हैं। वर्तमान में उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) का दर्जा प्राप्त है, जबकि वे लंबे समय से अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
चाय जनजातियों में संथाल और मुंडा जैसी जनजातियां शामिल हैं, जिन्हें उनके मूल राज्यों में ST का दर्जा प्राप्त है। असम के चाय जनजाति एवं आदिवासी कल्याण निदेशालय के अनुसार, ये लोग न केवल राज्य की आबादी का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, बल्कि राज्य के चाय उत्पादन में भी प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसके बावजूद, वे आज भी सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए पर हैं और असम के सबसे गरीब समुदायों में से एक हैं।
शोषण और मजदूरी संकट
असम के चाय बागानों में श्रमिकों को कठिन शारीरिक श्रम के बदले केवल दो वक्त का खाना मिलता है, जबकि उनके पास तरक्की और समृद्धि के कोई अवसर नहीं हैं। महंगाई के इस दौर में ब्रह्मपुत्र घाटी में चाय मजदूरों को मात्र ₹250 और बराक घाटी में ₹220 प्रतिदिन मिलते हैं।
2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान पीएम मोदी ने चाय बागान श्रमिकों की मजदूरी ₹350 प्रतिदिन करने का वादा किया था, लेकिन यह अब तक पूरा नहीं हुआ। आज चाय मजदूर ₹351 की दैनिक मजदूरी की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकार इस बुनियादी मांग को भी पूरा करने में असफल रही है।
झुमुर नृत्य: चाय जनजाति की सांस्कृतिक पहचान
असम के चाय बागानों में काम करने वाले प्रवासी समुदाय अपनी सांस्कृतिक विरासत अपने साथ लाए थे। उनमें झुमुर नृत्य प्रमुख है, जो छोटानागपुर क्षेत्र से उत्पन्न हुआ लोक नृत्य है।
विशेषताएँ
- यह नृत्य मुख्य रूप से सदान जातीय भाषाई समूह से संबंधित है और तुशु पूजा व करम पूजा जैसे फसल उत्सवों के दौरान किया जाता है।
- महिलाओं को मुख्य नर्तक और गायिका की भूमिका निभानी होती है, जबकि पुरुष मादल, ढोल, ढाक, झांझ, बांसुरी और शहनाई जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाते हैं।
- नर्तक कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होते हैं और अपनी मूल भाषाओं—नागपुरी, खोरठा और कुरमाली—में दोहे गाते हैं।
- पहनावा समुदाय के अनुसार बदलता है, लेकिन लाल और सफेद साड़ी महिलाओं में विशेष रूप से लोकप्रिय है।
- यह नृत्य समावेशिता, एकता और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक है और असम की समन्वित संस्कृति को दर्शाता है।
झुमुर गीतों में श्रमिकों की व्यथा
झुमुर गीत आमतौर पर उत्साहपूर्ण होते हैं, लेकिन इनमें श्रमिकों के संघर्ष की झलक भी मिलती है। गुवाहाटी विश्वविद्यालय की शोधार्थी निधि गोगोई ने अपने शोधपत्र “झुमुर लोक परंपरा: असम में चाय समुदाय की सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान” (2022) में लिखा है:
“ये गीत चाय बागान श्रमिकों के जीवन के बारे में बताते हैं और उनकी दरारों को उजागर करते हैं… [और] हमें उनके प्रवास के इतिहास और शोषणकारी श्रम संबंधों के बारे में बहुत कुछ बताते हैं।”
झुमुर महोत्सव के भव्य आयोजन के बावजूद, असम की चाय जनजाति समुदाय की मूल समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने चाय समुदाय को कुछ राहत योजनाओं का आश्वासन दिया, लेकिन उनकी प्रमुख मांगों पर चुप्पी साध ली। ऐसे में यह सवाल उठता है—क्या चाय जनजातियों को फिर सिर्फ सांस्कृतिक पहचान के झुनझुने से संतोष करना होगा?