पहले ही चुनाव में कांग्रेस नेता ने डॉ. अंबेडकर को हराया था: केसीआर

तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति (BRS) की सरकार है। के. चंद्रशेखर राव (KCR) मुख्यमंत्री है। राव सरकार के प्रमुख मुद्दों में से एक दलितों का कल्याण भी है। राज्य विधानसभा चुनाव के लिए 30 नवंबर को मतदान होना है।

मतदान से पहले बीआरएस अपनी उन योजनाओं का बार-बार जिक्र कर रही है, जो उन्होंने दलित समुदाय के लिए शुरू किया है।

मंगलवार को एक रैली में सीएम के. चंद्रशेखर राव ने दो ऐसी बातों का जिक्र किया, जिसकी चर्चा हो रही है। उन्होंने बताया कि उनकी सरकार ने डॉ. अंबेडकर की दुनिया की सबसे ऊंची (125 फीट) मूर्ति बनवाई है। डॉ. अंबेडकर की प्रतिमा हैदराबाद के पास राज्य सचिवालय के नजदीक स्थापित है।

इसके अलावा सीएम ने दलित बंधु योजना का जिक्र किया, जिसके माध्यम से अनुसूचित जाति (SC) परिवारों को 10 लाख रुपये डायरेक्ट ट्रांसफर किया जा रहा है।

केसीआर ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा, ‘बीआरएस सरकार तब तक काम करेगी जब तक कि अंतिम दलित परिवार को दलित बंधु योजना का लाभ नहीं मिल जाता। अम्बेडकर ने दलितों के लिए बहुत संघर्ष किये। यह कांग्रेस ही थी जिसने संसदीय चुनावों में उन्हें हराया। संसदीय चुनाव में अंबेडकर को किसने हराया, इसका इतिहास आपको जानना चाहिए। कांग्रेस ने उन्हें हराया और उनकी विचारधारा को लागू नहीं किया।’

KCR किस चुनाव का जिक्र कर रहे थे?

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1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विभिन्न समुदायों और अपने कुछ कद्दावर विरोधियों के साथ 15 सदस्यों वाला पहला केंद्रीय मंत्रिमंडल बनाया। डॉ. अम्बेडकर को केंद्रीय कानून मंत्री नियुक्त किया गया।

उस समय भारतीय राजनीति पर कांग्रेस का लगभग एकाधिकार था। लेकिन कई अन्य राजनीतिक ताकत भी पहले चुनाव से पहले ही अपना दबदबा कायम करने लगी थीं। श्यामा प्रसाद मुखर्जी (नेहरू कैबिनेट में उद्योग मंत्री) ने हिंदू दक्षिणपंथ का प्रतिनिधित्व करने वाले भाजपा के पूर्ववर्ती, भारतीय जनसंघ की स्थापना के लिए अलग हो गए। अम्बेडकर ने Scheduled Caste Federation (SCF) का गठन किया। उन्होंने पहले 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (ILP) का गठन किया था।

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने 2002 में वर्ल्ड पॉलिसी जर्नल में प्रकाशित ‘Democracy’s Biggest Gamble: India’s first free elections in 1952’ शीर्षक से एक लेख में लिखा था। इसमें उन्होंने बताया था कि अंबेडकर ने ‘निचली जातियों के उत्थान के लिए बहुत कम प्रयास करने के लिए’ कांग्रेस की कड़ी आलोचना की।

गुहा लिखते हैं, ‘आजादी के बाद भी वही पुराना अत्याचार, वही पुराना उत्पीड़न, वही पुराना भेदभाव था…, अम्बेडकर ने कहा, कांग्रेस पार्टी उद्देश्य या सिद्धांतों की एकता के बिना, एक धर्मशाला में बदल गई है। यह सभी के लिए खुली है। इसमें एक साथ मूर्ख और धूर्त, दोस्त और दुश्मन, सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्षतावादी, सुधारक और रूढ़िवादी, पूंजीपति और पूंजीवाद विरोधी है।’

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पहला आम चुनाव अक्टूबर 1951 और फरवरी 1952 के बीच हुआ, जिसमें अम्बेडकर ने बॉम्बे नॉर्थ सेंट्रल से चुनाव लड़ा। अशोक मेहता के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी ने उनका समर्थन किया। यह एक दोहरे सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र था, जिसका अर्थ है कि इसमें दो प्रतिनिधि होंगे जिनमें से कम से कम एक महिला होगी। 1961 में इस प्रथा को समाप्त कर दिया गया। कम्युनिस्ट पार्टी के नेता एसए डांगे जैसे दिग्गजों ने चुनाव लड़ा। अम्बेडकर कांग्रेस के नारायण सदोबा काजरोलकर से 15,000 वोटों से हार गये।

पहले चुनाव में नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस की लहर थी, इसलिए रिजल्ट भी वैसे ही आए थे। कांग्रेस ने जबरदस्त जीत हासिल की, संसद की 489 सीटों में से 364 सीटें और विधानसभाओं की 3,280 में से 2,247 सीटें जीतीं।

अपनी हार के बाद, अम्बेडकर ने परिणाम पर सवाल उठाया। पीटीआई की एक रिपोर्ट में 5 जनवरी, 1952 को उनके हवाले से कहा गया है , ‘बॉम्बे की जनता के भारी समर्थन को इतनी बुरी तरह से कैसे झुठलाया जा सकता था, यह वास्तव में चुनाव आयुक्त द्वारा जांच का विषय है।’

अम्बेडकर और मेहता ने परिणाम को रद्द करने और इसे अमान्य घोषित करने के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त के समक्ष एक संयुक्त चुनाव याचिका दायर की। अन्य बातों के अलावा, उन्होंने दावा किया कि ‘कुल 74,333 मतपत्रों को खारिज कर दिया गया था और उनकी गिनती नहीं की गई थी।’

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इसके बाद अंबेडकर ने 1954 में महाराष्ट्र के भंडारा निर्वाचन क्षेत्र से उपचुनाव लड़ा। वह फिर कांग्रेस से लगभग 8,500 वोटों से हार गए। डॉ. अंबेडकर के जीवनी लेखक धनंजय कील ने अपनी पुस्तक ‘डॉ अंबेडकर: लाइफ एंड मिशन’ में लिखा है कि अपने चुनावी अभियान के दौरान अंबेडकर ने नेहरू नेतृत्व पर जमकर हमला बोला, विशेष रूप से उनकी विदेश नीति की आलोचना की।

अम्बेडकर की हार का मतलब क्या है?

पॉलिटिकल साइंटिस्ट क्रिस्टोफ़ जाफ़रलॉट ने 2010 में इंडियन इंटरनेशनल सेंटर क्वार्टरली में प्रकाशित ‘Caste and Politics’ शीर्षक से एक लेख में लिखा है कि चुनाव से पता चला कि एससीएफ महाराष्ट्र तक ही सीमित रहेगी। अंबेडकर अपने महार समुदाय के अलावा अन्य मतदाताओं को आकर्षित नहीं कर सके।

जाफ़रलॉट लिखते हैं कि रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, जिसे अंबेडकर ने 1956 में बनाया था, ‘केवल दलितों के बजाय धार्मिक अल्पसंख्यकों, निचली जातियों और आदिवासियों जैसे अन्य समूहों के लिए खुली थी।’

वे आगे लिखते हैं, ‘डॉ. अंबेडकर के आइडिया से 1960 के दशक में आरपीआई को सफलता मिली। इसी रास्ते पर चलकर बाद में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को और भी अधिक सफलता मिली।’

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