गारो जनजाति का 49वां वांगला फेस्टिवल धूमधाम से संपन्न: ढोलों की गूंज में झलकी संस्कृति और आस्था

मेघालय की धरती तीन दिनों तक ढोल-नगाड़ों की गूंज से थर्राती रही. पश्चिम गारो हिल्स के चिब्राग्रे क्षेत्र में आयोजित 49वां वांगला फेस्टिवल (Wangala Festival) पूरे जोश और पारंपरिक उल्लास के साथ संपन्न हुआ. नवंबर की सुनहरी धूप में यह उत्सव मानो गारो समाज की जीवनशक्ति बन गया, जिसने पूरे राज्य को उत्सवमय बना दिया।

वांगला, जिसे “Hundred Drums Festival” भी कहा जाता है, गारो हिल्स में रहने वाली गारो जनजाति (Garo Tribe) का सबसे प्रमुख त्योहार है। यह फसल कटाई के बाद मनाया जाने वाला पारंपरिक पर्व है, जो कृषि जीवन की कठिन मेहनत और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। इस दौरान गारो समुदाय अपने मुख्य देवता मिसी सालजोंग (Misi Saljong) — सूर्य देव — को धन्यवाद अर्पित करता है, जिनकी कृपा से अच्छी फसल और जीवन की खुशहाली मानी जाती है।

मुख्यमंत्री ने किया उत्सव का उद्घाटन

मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनराड के. संगमा ने 6 नवंबर को तीन दिवसीय इस पर्व का उद्घाटन किया। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर उत्सव की तस्वीरें साझा करते हुए लिखा —

“49वें वांगला फेस्टिवल का हिस्सा बनकर अत्यंत गर्व महसूस हो रहा है। हमें अपनी विरासत पर गर्व है और सरकार इसे संरक्षित व प्रोत्साहित करने के लिए प्रतिबद्ध है।”

मुख्यमंत्री ने यह भी बताया कि तिब्बत से गारो जनजाति की ऐतिहासिक यात्रा और उनके पूर्वजों के प्रवास का अध्ययन करने के लिए एक समिति का गठन किया गया है, जिससे समुदाय के वंश और इतिहास को बेहतर समझा जा सके। उन्होंने लगभग पांच दशकों से परंपराओं को जीवित रखने वाले सभी वांगला समूहों और आयोजकों को धन्यवाद दिया।

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फसल और आस्था का पर्व

वांगला उत्सव को “देवता को धन्यवाद देने का पर्व” कहा जाता है। फसल घर आने के बाद किसान ढोल, बांसुरी और पारंपरिक गीतों के साथ मिसी सालजोंग को कृतज्ञता अर्पित करते हैं। यह पर्व कृषि के साथ-साथ सामूहिकता, नृत्य, संगीत और परंपरा का उत्सव है — जहां समुदाय अपने अस्तित्व और संस्कृति का जश्न मनाता है।

तीन दिनों तक गूंजते रहे ढोल

5 से 7 नवंबर तक चले इस उत्सव की शुरुआत रगुला (Rugala) अनुष्ठान से हुई, जिसमें गांव के मुखिया नोक्मा (Nokma) अपने घर में देवता को नई फसल और चावल की मदिरा अर्पित करते हैं।
दूसरे दिन छा-छाट सोआ (Cha·chat So·a) के दौरान धूपबत्ती जलाकर देवता की पूजा होती है।
तीसरे दिन उत्सव अपने चरम पर पहुंचता है जब पुरुष और महिलाएं पारंपरिक नृत्य “दमा गोगट्टा (Dama Gogata)” में भाग लेते हैं — यह नृत्य मेहनत, कृतज्ञता और प्रकृति के साथ उनके जुड़ाव का प्रतीक है।

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“Hundred Drums Dance” बना आकर्षण का केंद्र

वांगला फेस्टिवल की सबसे बड़ी पहचान इसका प्रसिद्ध “Hundred Drums Dance” है। सैकड़ों युवा पारंपरिक पोशाकों में सजे, जब एक साथ ढोल की थाप पर नृत्य करते हैं, तो पूरा वातावरण ऊर्जा से भर उठता है।
पुरुष कलाकार सिर पर पंखों वाले मुकुट और शरीर पर गंताप वस्त्र पहनते हैं, जबकि महिलाएं डकमांडा कपड़ों और रंग-बिरंगे मोतियों, शंखों और पारंपरिक गहनों से सजी होती हैं।
जब सौ ढोलों की थाप पहाड़ों और घाटियों में गूंजती है, तो ऐसा लगता है मानो प्रकृति स्वयं उनके साथ संवाद कर रही हो।

संस्कृति और स्वाद का संगम

उत्सव में केवल नृत्य और संगीत ही नहीं, बल्कि हस्तशिल्प प्रदर्शनी, लोकगीत, पारंपरिक औजारों का प्रदर्शन और स्थानीय खानपान भी केंद्र में रहे।
स्थानीय महिलाओं द्वारा तैयार की गई चावल की मदिरा, सूखी मछली, बांस की सब्जी और धान की मिठाई ने आगंतुकों को गारो स्वाद की दुनिया में डुबो दिया। देश-विदेश से आए पर्यटक इन तीन दिनों में पूरी तरह गारो संस्कृति में रच-बस गए।

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वांगला उत्सव का इतिहास

वांगला उत्सव की शुरुआत 1976 में आसनांग (Asanang) गांव से हुई थी, जो टूरा से लगभग 18 किमी दूर है। उस समय इस उत्सव को “Hundred Drums Festival” नाम दिया गया था, ताकि गारो समुदाय की पहचान को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया जा सके।
आज यह आयोजन न केवल मेघालय बल्कि पूरे पूर्वोत्तर भारत का सांस्कृतिक प्रतीक बन चुका है।

गारो बुजुर्गों के शब्दों में —

“वांगला हमारे लिए केवल त्योहार नहीं, हमारी आत्मा है। इसमें हमारी धरती, हमारी फसल और हमारे पूर्वजों की स्मृतियाँ बसती हैं।”

यह पर्व गारो समाज को एक सूत्र में बाँधता है — परिवारों को जोड़ता है, परंपराओं को जीवित रखता है, और आने वाली पीढ़ियों को अपनी जड़ों से परिचित कराता है।

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