आरएसएस की जनजातीय शाखाएँ: इतिहास, रणनीति और आदिवासी प्रतिक्रिया

2025 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना के 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं। 1925 में नागपुर से शुरू हुआ यह संगठन आज एक विशाल नेटवर्क में बदल चुका है, जिसके अनुषांगिक संगठन शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीति, धर्म और समाज के लगभग हर क्षेत्र में सक्रिय हैं।

अपनी शताब्दी वर्षगांठ पर संघ का प्रमुख एजेंडा है – नए सामाजिक वर्गों तक पहुँचना। खासतौर पर आदिवासी समाज, जिसे संघ “वनवासी” कहता है। यही कारण है कि आरएसएस की जनजातीय शाखाएँ और उनसे जुड़े संगठन इस समय और भी सक्रिय हो गए हैं।

आदिवासी समाज की अपनी अलग संस्कृति, परंपरा और धार्मिक विश्वास हैं। लेकिन संघ की दृष्टि में आदिवासी “जंगल में रहने वाले हिंदू” हैं। इसी सोच के आधार पर बीते सात दशकों में वनवासी कल्याण आश्रम, वनवासी परिषद, धर्म जागरण मंच और भाजपा का जनजाति मोर्चा जैसे संगठनों का निर्माण हुआ।

  1. आरएसएस की दृष्टि में आदिवासी: “आदिवासी” बनाम “वनवासी”

आरएसएस अपनी 100वीं वर्षगांठ पर भी यह संदेश दे रहा है कि आदिवासी समाज कोई अलग धर्म नहीं है, बल्कि वह हिंदू समाज का ही अंग है। यही कारण है कि संघ “आदिवासी” शब्द की बजाय “वनवासी” शब्द का प्रयोग करता है।

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“आदिवासी” का मतलब है मूल निवासी, जो स्वतंत्र पहचान का संकेत देता है।

“वनवासी” का अर्थ है जंगल में रहने वाला, जिसे हिंदू समाज का अंग माना जाता है।

यह शब्दावली आरएसएस की वैचारिक रणनीति का हिस्सा है, और शताब्दी वर्ष में इस पर और अधिक ज़ोर दिया जा रहा है।

  1. वनवासी कल्याण आश्रम: नींव से लेकर शताब्दी तक

1952 में स्थापित वनवासी कल्याण आश्रम संघ की जनजातीय नीति की आधारशिला है।

शिक्षा, स्वास्थ्य और सेवा के नाम पर यह संगठन आज हजारों गाँवों में पहुँचा हुआ है।

2025 में संघ के शताब्दी वर्ष के कार्यक्रमों के दौरान इसकी भूमिका और बढ़ गई है।

आदिवासी इलाकों में विशेष “सेवा सप्ताह” और “संस्कृति जागरण अभियान” चलाए जा रहे हैं।

  1. अखिल भारतीय वनवासी परिषद और विस्तार

शताब्दी वर्ष में परिषद का उद्देश्य है –

आदिवासी समाज में और गहरी पैठ बनाना।

2025 तक हर आदिवासी बहुल जिले में शाखाएँ या परियोजनाएँ शुरू करना।

  1. धर्म जागरण मंच और घर वापसी: शताब्दी पर जोर
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संघ की 100वीं वर्षगांठ पर “घर वापसी” को नई ऊर्जा दी गई है।

झारखंड, छत्तीसगढ़ और असम में विशेष कार्यक्रमों का आयोजन।

प्रचार कि “आदिवासी मूलतः हिंदू हैं और उन्हें वापस अपनी जड़ों में आना चाहिए।”

  1. राजनीतिक लक्ष्य और भाजपा

शताब्दी वर्ष में भाजपा और संघ दोनों का साझा एजेंडा है –

आदिवासी बहुल सीटों पर पकड़ मजबूत करना।

झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और उत्तर-पूर्व में सत्ता की स्थिति को और स्थिर करना।

आदिवासी नेताओं को सामने लाकर उन्हें “हिंदू आदिवासी” की पहचान देना।

  1. आलोचना और आदिवासी प्रतिक्रिया

आरएसएस की शताब्दी वर्षगांठ पर चलाए जा रहे कार्यक्रमों ने आदिवासी समाज में नए विवाद खड़े किए हैं।

कई बुद्धिजीवी मानते हैं कि यह उनकी स्वतंत्र धार्मिक पहचान पर सीधा हमला है।

सरना धर्म कोड की मांग करने वाले संगठन इसे “सांस्कृतिक उपनिवेशवाद” बता रहे हैं।

वहीं, कुछ आदिवासी वर्ग संघ की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं से आकर्षित होकर उसके नज़दीक भी जा रहे हैं।

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आरएसएस की स्थापना के 100 साल पूरे होने पर यह साफ दिखाई दे रहा है कि संघ अपने विस्तार के सबसे बड़े लक्ष्य के रूप में आदिवासी समाज को देख रहा है।

एक ओर यह संगठन शिक्षा, सेवा और विकास के नाम पर गाँव-गाँव पहुँच रहा है, तो दूसरी ओर आदिवासी पहचान और धर्म को हिंदूकरण की ओर धकेल रहा है। यही कारण है कि शताब्दी वर्ष आदिवासी समाज के लिए भी एक बड़े संघर्ष और आत्ममंथन का समय है – कि वे अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखें या संघ की विचारधारा में समाहित हो जाएँ।

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