झारखंड की क्रांतिभूमि पर हाल ही में एक ऐतिहासिक मिलन हुआ, जब देशभर के विभिन्न राज्यों से आए आदिवासी समुदाय के प्रतिनिधियों ने एकजुट होकर अपनी आवाज, अपनी पहचान और अपने अधिकारों को फिर से दृढ़ता से उठाया। इस अवसर पर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने जो बातें कहीं, वे केवल एक भाषण नहीं थीं—वे भारतीय आदिवासी समाज की सामूहिक चेतना, संघर्ष और भविष्य की दिशा का गहन दस्तावेज थीं।
उनकी बातों से साफ झलकता है कि भारत के आदिवासी समुदाय के सामने आज जो चुनौतियाँ हैं, वे केवल सामाजिक या राजनीतिक नहीं, बल्कि अस्तित्वगत हैं। जिनके समाधान के लिए एकता, संगठित संघर्ष और राष्ट्रीय स्तर पर ठोस रणनीति आवश्यक है।
आदिवासी समाज: संघर्ष, स्वाभिमान और बिखराव की पीड़ा
सोरेन ने अपने वक्तव्य की शुरुआत एक गहरी भावनात्मक सच्चाई से की—आदिवासी समाज इस देश और धरती का सबसे पुराना, सबसे स्वाभिमानी और सबसे बहादुर समुदाय रहा है।
उन्होंने कहा कि इस समाज ने अनगिनत वीरों और वीरांगनाओं को जन्म दिया, जिन्होंने देश के हर कोने में संघर्ष की ज्योति को जलाए रखा।
परंतु इसी इतिहास के बीच एक कटु सच्चाई भी है—आदिवासी समाज को सदियों से विभाजित रखा गया। भाषा, भूगोल और राजनीतिक सीमाओं के नाम पर आदिवासियों की एकता को कमजोर किया गया। सोरेन स्पष्ट करते हैं कि यही बिखराव आज सबसे बड़ी कमजोरी बन गया है।
जनगणना में उपस्थिति का संकट और अस्तित्व का सवाल
हेमंत सोरेन ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया—जनगणना में आदिवासी पहचान को सही स्थान क्यों नहीं मिलता?
जनगणना किसी भी राष्ट्र में संसाधनों के वितरण, नीतियों की संरचना और राजनीतिक प्रतिनिधित्व का आधार होती है।
यदि आदिवासी समाज को सही तरीके से दर्ज नहीं किया जाएगा तो—
- उनकी आबादी का वास्तविक आकार अदृश्य हो जाएगा,
- उनके अधिकार कमजोर पड़ेंगे,
- और वे धीरे-धीरे “विलुप्त” होने की स्थिति में पहुंच सकते हैं।
यह चेतावनी केवल एक आशंका नहीं, बल्कि वास्तविकता है, जिसे सोरेन बड़ी स्पष्टता से सामने रखते हैं।
विकास में अभाव: आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हाशियाकरण
सोरेन के अनुसार आदिवासी समाज आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक और राजनीतिक रूप से लगातार हाशिये पर धकेला गया है।
कुछ सवाल वे सीधे पूछते हैं—
- कितने आदिवासी लोग हैं जिन्हें विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ने का अवसर मिला?
- कितने आदिवासी नेता, नीति-निर्माता या उच्च पदों पर पहुंचने वाले प्रतिनिधि हैं?
देश में आदिवासी मुख्यमंत्री का अभाव इस बात का बड़ा प्रमाण है कि राजनीतिक नेतृत्व में भी आदिवासी समाज को दरकिनार किया जाता है।
प्रकृति से जुड़ा समाज और आधुनिक दुनिया की विडंबना
आदिवासी समाज की सर्वाधिक पहचान है—जल, जंगल और जमीन। सोरेन कहते हैं कि यही पहचान आज उनके खिलाफ उपयोग हो रही है।
- पर्यावरण संकट बढ़ रहा है,
- जंगल खत्म किए जा रहे हैं,
- पहाड़ और नदियाँ लूटी जा रही हैं,
- और वही आदिवासी समुदाय, जो प्रकृति का सबसे ज्यादा संरक्षण करता रहा है, उसे ही हाशियाकृत किया जा रहा है।
वे हसदेव जैसे जंगलों का उदाहरण देते हैं, जिन्हें विकास परियोजनाओं के नाम पर नष्ट किया जा रहा है, जबकि आदिवासी समाज का पूरा जीवन ही प्रकृति के संरक्षण पर आधारित है।
वीरों की विरासत और आज की लड़ाई
सोरेन याद दिलाते हैं कि बिरसा मुंडा, सिदो-कान्हू, और दिशोम गुरु जैसे महान नेताओं ने कभी डरकर या झुककर नहीं, बल्कि संघर्ष करके अपना रास्ता बनाया।
उनकी लड़ाई किसी सत्ता के लिए नहीं थी—
- वह जमीन के लिए थी,
- पहचान के लिए थी,
- सम्मान के लिए थी,
- और अस्तित्व के लिए थी।
आज भी वही लड़ाई जारी है, लेकिन इस बार प्रतिद्वंद्वी अदृश्य और जटिल है—नीतियों की व्यवस्था, आर्थिक हितों का गठजोड़, तथा सामाजिक-राजनीतिक उपेक्षा।
एकता ही सबसे बड़ी ताकत
सोरेन बार-बार यही बात दोहराते हैं कि बड़ी मछली हमेशा छोटी मछली को खा जाना चाहती है।
यह प्रतीक है—
- सत्ता संरचनाओं का,
- आर्थिक दबावों का,
- और राजनीतिक शक्तियों के बीच असमान संबंध का।
लेकिन यदि आदिवासी समाज एकजुट हो जाए, वह “छोटी मछली” नहीं, बल्कि एक अजेय शक्ति बन सकता है।
उन्होंने सभी राज्यों के प्रतिनिधियों से यह वादा भी किया कि उनका संपर्क और संवाद लगातार बना रहेगा और वे व्यक्तिगत रूप से भी राज्यों में जाकर मुलाकात करेंगे।
आदिवासी समाज की पहचान: प्रकृति ही दस्तावेज
सोरेन कहते हैं कि आदिवासी समाज का कोई बड़ा लिखा हुआ इतिहास नहीं, पर उसकी पहचान मिट्टी में, जंगलों में, पहाड़ों में और नदियों में दर्ज है।
“हम प्रकृति के पूजक हैं—
हमारा दस्तावेज हमारी प्रकृति है।”
यह वाक्य न सिर्फ दर्शन है, बल्कि राजनीतिक घोषणा भी—
क्योंकि आधुनिक नीतियों में प्रकृति और आदिवासी दोनों को प्राथमिकता नहीं मिलती।
भविष्य का रास्ता: संघर्ष को राष्ट्रीय मुद्दा बनाना होगा
लेख के अंत में सोरेन एक स्पष्ट घोषणा करते हैं—
आदिवासी समुदाय को केवल आवाज नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति का एजेंडा बनना होगा।
यह तभी संभव है जब—
- आदिवासी अपनी एकता दिखाएं,
- साझा रणनीति बनाएँ,
- राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत नेतृत्व तैयार करें,
- और अपनी पहचान को बिखरे हुए समूह के रूप में नहीं, बल्कि एक “राष्ट्र-समुदाय” के रूप में प्रस्तुत करें।
उनके शब्दों में—
“हमें बताना होगा कि हम बिखरे हुए लोग नहीं, राष्ट्र-समुदाय हैं। इतिहास के कोने-कोने से निकलकर हमें भविष्य के केंद्र में पहुंचना है।”
हेमंत सोरेन का यह संबोधन केवल झारखंड या किसी एक राज्य का मामला नहीं है। यह भारत के सभी आदिवासी समुदायों के लिए भविष्य का रोडमैप है।
- आदिवासी समाज का संघर्ष आज भी जारी है,
- उनका अस्तित्व खतरे में है,
- लेकिन एकता, जागरूकता और संगठित प्रयास से यह समाज आने वाले वर्षों में अपनी पहचान और अधिकारों को नए स्तर पर स्थापित कर सकता है।





