रांची : झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा की ओर से यह घोषणा की गई है कि पहला ‘रोज केरकेट्टा साहित्य सम्मान’ वर्ष 2025 के लिए विश्वासी एक्का को उनकी चर्चित कहानी संग्रह ‘कोठी भर धान’ के लिए प्रदान किया जाएगा। यह सम्मान समारोह आगामी 7 दिसंबर 2025 को रांची में आयोजित होगा।
यह पुरस्कार झारखंड की आदिवासी, देशज और क्षेत्रीय भाषाओं में सृजनात्मक लेखन को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से प्रारंभ किया गया है।
कौन थीं रोज केरकेट्टा?
रोज केरकेट्टा झारखंड की प्रसिद्ध कवयित्री, शिक्षिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं, जिन्होंने अपने लेखन और सक्रियता के माध्यम से आदिवासी अस्मिता, मातृभाषा, संस्कृति और स्त्री चेतना को नई पहचान दी। उन्होंने झारखंडी साहित्य में लोकभाषाओं को सशक्त स्वर प्रदान किया।
उनकी कविताएँ और विचार झारखंडी समाज की जमीनी सच्चाइयों, जनजीवन के संघर्षों और स्त्री के आत्मबोध को गहराई से व्यक्त करते हैं। रोज केरकेट्टा का योगदान झारखंड की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना में एक प्रेरक अध्याय के रूप में याद किया जाता है।
लेखक परिचय : विश्वासी एक्का
जन्म : 01 जुलाई 1973, बटईकेला, सरगुजा (छत्तीसगढ़)
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), पीएच.डी.
प्रमुख कृतियाँ :
कजरी (कहानी-पुस्तिका), नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नयी दिल्ली, 2017
लछमनिया का चूल्हा (कविता-संग्रह), प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, राँची, 2018
मौसम तो बदलना ही था (कविता-संग्रह), रश्मि प्रकाशन, लखनऊ, 2021
कुहुकि-कुहुकि मन रोय (उपन्यास), अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली, 2023
वर्तमान पद : सहायक प्राध्यापक, शासकीय राजमोहिनी देवी कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अम्बिकापुर (छत्तीसगढ़)।
विश्वासी एक्का की रचनाएँ आदिवासी जीवन, लोकसंस्कृति, स्त्री अनुभव और मानवीय सरोकारों को संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त करती हैं। उनकी लेखनी में झारखंड और छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जीवन की मिट्टी की महक स्पष्ट झलकती है।
सम्मान का उद्देश्य
झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा द्वारा प्रारंभ किया गया यह पुरस्कार उन रचनाकारों को समर्पित है जो स्थानीय भाषाओं, संस्कृति और जनसाहित्य को नई दिशा दे रहे हैं। संस्था का उद्देश्य है कि झारखंड की साहित्यिक परंपरा और जनभाषाएँ राष्ट्रीय पटल पर अपनी पहचान बना सकें।
‘रोज केरकेट्टा साहित्य सम्मान’ का यह पहला संस्करण झारखंड के साहित्यिक परिदृश्य में एक नई ऊर्जा का संचार करेगा। यह सम्मान न केवल झारखंड की जनभाषाओं को गौरव देगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ने की प्रेरणा भी देगा।





