आज 31 अक्टूबर को पूरा देश सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती को राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मना रहा है। प्रधानमंत्री से लेकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह तक, सभी भारत की अखंडता में सरदार पटेल के योगदान को याद कर रहे हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रम, एकता दौड़ और ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ स्थल पर भव्य समारोहों का आयोजन किया जा रहा है।
लेकिन जब देश में उत्सव का माहौल है, तब गुजरात के नर्मदा ज़िले के कई आदिवासी गांवों में यह दिन शोक का प्रतीक बन जाता है। जिन ज़मीनों पर कभी उनके घर थे, आज वहीं देश की सबसे ऊंची प्रतिमा खड़ी है — स्टैच्यू ऑफ यूनिटी।
विस्थापन की शुरुआत: 2013 से उठी नाराज़गी
यह कहानी 2013 से शुरू होती है, जब उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी ने सरदार पटेल की प्रतिमा बनाने की घोषणा की थी।
इस परियोजना के लिए नर्मदा ज़िले के आस-पास के 72 गांवों की ज़मीन अधिग्रहित की गई, जिससे लगभग 75,000 आदिवासी प्रभावित हुए।
स्थानीय नेताओं — डॉ. प्रफुल वसावा और छोटूभाई वसावा — ने तब चेताया था कि यह परियोजना आदिवासियों के संवैधानिक भूमि अधिकारों का उल्लंघन कर रही है।
2018 की रिपोर्टों के अनुसार, प्रभावित 72 गांवों में से 32 गांवों में पुनर्वास अधूरा रहा, 7 गांवों को केवल नकद मुआवज़ा मिला, जबकि 6 गांवों की ज़मीनें केवड़िया कॉलोनी में पर्यटन के लिए ली गईं।
2018: उद्घाटन से पहले आदिवासियों का ‘मौन विरोध’
31 अक्टूबर 2018 को प्रधानमंत्री मोदी ने प्रतिमा का उद्घाटन किया।
लेकिन एक दिन पहले, नर्मदा के गांवों में सन्नाटा पसरा था। 72 गांवों में चूल्हे नहीं जले।
लोगों ने इस दिन को “शोक दिवस” घोषित किया था।
सामाजिक कार्यकर्ता आनंद मजगांवकर के अनुसार, प्रतिमा परियोजना से 13 गांव सीधे भूमि अधिग्रहण से प्रभावित हुए थे, जहां लगभग 20,000 आदिवासी रहते थे।
यह ज़मीनें केवल मूर्ति के लिए नहीं, बल्कि सड़क, होटल और पर्यटन सुविधाओं के लिए भी ली गईं।
विरोध को दबाने के लिए 90 से अधिक सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को उद्घाटन से पहले ही हिरासत में ले लिया गया।
2020: ‘ब्लैक डे’ और आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारी
दो साल बाद, जब प्रधानमंत्री फिर से केवड़िया पहुंचे, तो स्थानीय समुदायों ने 31 अक्टूबर को “ब्लैक डे” के रूप में मनाने का निर्णय लिया।
उनका कहना था —
“यह हमारी ज़मीन थी, और अब यह हमारे लिए निषिद्ध क्षेत्र बन गया है।”
लेकिन विरोध शुरू होने से पहले ही कई आदिवासी नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया।
इलाके के कुछ हिस्सों में मोबाइल इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गईं।
आदिवासी नेता छोटूभाई वसावा ने कहा —
“सरकार इसे पर्यटन परियोजना बताकर पेश कर रही है, जबकि यह हमारे अस्तित्व पर हमला है।
जिनकी ज़मीनें ली गईं, उन्हें आज तक न नौकरी मिली, न नई ज़मीन।”
2025: एकतानगर की चमक के पीछे टूटी उम्मीदें
2025 तक केवड़िया का इलाका “एकतानगर” के रूप में विकसित हो चुका है —
यहां हेलिपैड, स्मार्ट बसें, लग्ज़री होटल और सोलर पार्क जैसी आधुनिक सुविधाएं हैं।
पर इस भव्यता से कुछ ही किलोमीटर दूर, पहाड़ी गांवों में आदिवासी अब भी विस्थापन, बेरोज़गारी और भूख से जूझ रहे हैं।
नर्मदा ज़िले की कुल आबादी का 87% हिस्सा आदिवासी है, लेकिन यहां की साक्षरता दर केवल 62.5% है, जबकि राज्य का औसत 78% है।
नीति आयोग की ज़िला पोषण प्रोफाइल (2022) रिपोर्ट के अनुसार —
- महिलाओं और बच्चों में कुपोषण और एनीमिया का स्तर राज्य औसत से कहीं अधिक है।
- राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक 2023-24 में नर्मदा ज़िले की गरीबी दर 22.62% है — जो राज्य में डांग के बाद दूसरा सबसे गरीब ज़िला है।
इंडियन एक्सप्रेस (2023) की एक रिपोर्ट बताती है कि जिले के 952 आंगनवाड़ी केंद्रों में से 146 जर्जर हालत में हैं।
कई केंद्रों में पानी, बिजली और शौचालय की सुविधा नहीं है।
राज्य विधानसभा में यह भी स्वीकार किया गया कि कई आंगनवाड़ी किराए की इमारतों में चल रहे हैं और नई इमारतों के लिए टेंडर बार-बार निरस्त हुए हैं।
स्वास्थ्य और जीवन की जंग
नर्मदा का एकमात्र सिविल अस्पताल राजपीपला में है।
यहां स्टाफ और उपकरणों की भारी कमी है।
अक्सर मरीजों को 90 किलोमीटर दूर वडोदरा भेज दिया जाता है।
स्थानीय कार्यकर्ताओं का कहना है कि कई महिलाएं प्रसव के दौरान अस्पताल पहुंचने से पहले रास्ते में ही दम तोड़ देती हैं।
एकता का पर्व या अस्तित्व का संघर्ष?
राष्ट्रीय एकता दिवस का उद्देश्य देश को एक सूत्र में बांधना है।
लेकिन नर्मदा के आदिवासियों के लिए यह दिन उस “एकता” की कीमत की याद दिलाता है, जिसमें उनका घर, ज़मीन और जीवनशैली कुर्बान हो गए।
जहां एक ओर प्रतिमा राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर, उसी प्रतिमा के साए में आदिवासियों का संघर्ष यह सवाल उठाता है —
“क्या एकता की परिभाषा में उनकी आवाज़ शामिल है?”