श्योपुर (मध्यप्रदेश):
मध्यप्रदेश के श्योपुर ज़िले के करहाल तहसील कार्यालय में दो आदिवासी महिलाएँ न्याय की गुहार लगाते हुए अधिकारी के पैरों में गिर गईं। यह घटना न केवल प्रशासनिक तंत्र की संवेदनहीनता को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि किस तरह आदिवासी महिलाएँ अपने अधिकारों के लिए व्यवस्था के सामने बेबस नज़र आती हैं।
घटना खिरखिरी गाँव की बताई जा रही है। पीड़िता सावित्री बाई और उनकी बहू ने आरोप लगाया है कि कुछ प्रभावशाली लोगों ने उनकी झोपड़ी तोड़ दी और उनकी पुश्तैनी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया। दोनों महिलाएँ पिछले कई महीनों से अधिकारियों के चक्कर लगा रही थीं, लेकिन जब कोई सुनवाई नहीं हुई तो वे करहाल तहसील पहुँचीं।
पैरों में गिरकर न्याय की गुहार
रिपोर्ट्स के अनुसार, दोनों महिलाएँ अपने आवेदन लेकर तहसील कार्यालय पहुँचीं और अधिकारियों से अपनी समस्या बताई। जैसे ही तहसीलदार रोशनी शेख़ दफ़्तर से निकलने लगीं, महिलाएँ उनके पैरों में गिरकर रोने लगीं। इस दौरान किसी ने यह दृश्य कैमरे में कैद कर लिया, जो अब सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो गया है।
वीडियो में महिलाएँ रोते हुए कहती हैं,
“हमारा घर तोड़ दिया गया, ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया गया, अब हम कहाँ जाएँ?”
उनकी व्यथा और असहायता देखकर कई लोग भावुक हो गए, लेकिन इस घटना ने यह सवाल भी खड़ा किया कि आखिर क्यों आदिवासी महिलाएँ न्याय के लिए इस तरह की स्थिति में पहुँच जाती हैं।
आदिवासियों की ज़मीन पर बढ़ता संकट
मध्यप्रदेश के कई हिस्सों, खासकर श्योपुर, गुना और शिवपुरी ज़िलों में आदिवासी भूमि विवाद लंबे समय से गंभीर समस्या बने हुए हैं। शक्तिशाली स्थानीय समूहों या तथाकथित “भू-माफियाओं” द्वारा ज़मीन पर कब्ज़े की घटनाएँ आम हैं।
हालाँकि संविधान और वनाधिकार कानून, 2006 जैसे प्रावधान आदिवासियों की भूमि और आजीविका की रक्षा की गारंटी देते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत अलग है। अधिकांश आदिवासी परिवारों के पास अपनी भूमि के दस्तावेज़ नहीं हैं, और प्रशासनिक ढिलाई के कारण वे न्याय से वंचित रह जाते हैं।
महिलाओं की दोहरी पीड़ा
इस घटना में विशेष रूप से यह तथ्य उल्लेखनीय है कि यह महिलाएँ ही हैं जिन्होंने न्याय के लिए आगे आकर आवाज़ उठाई। आदिवासी समाज में महिलाएँ खेत, जंगल और घर—तीनों की रीढ़ होती हैं। लेकिन जब उनकी ज़मीन छीनी जाती है, तो वे सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक रूप से सबसे ज़्यादा प्रभावित होती हैं।
एक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता के शब्दों में —
“जब किसी आदिवासी महिला को न्याय के लिए अधिकारी के पैरों में गिरना पड़े, तो यह शासन व्यवस्था की असफलता का प्रतीक है।”
प्रशासनिक प्रतिक्रिया
घटना के बाद तहसीलदार रोशनी शेख़ ने बताया कि मामले की जाँच शुरू की गई है और दोनों महिलाओं के आवेदन दर्ज कर लिए गए हैं। प्रशासन का कहना है कि तथ्यों की पुष्टि के बाद उचित कार्रवाई की जाएगी।
फिलहाल, महिलाओं को अब भी न्याय की उम्मीद है, जबकि सोशल मीडिया पर लोग इस घटना पर तीखी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। कई यूज़र्स ने लिखा कि “जब देश की आदिवासी बेटियाँ न्याय के लिए पैरों में गिरने पर मजबूर हों, तब यह लोकतंत्र के लिए शर्म की बात है।”
संविधान और ज़मीनी हकीकत का टकराव
भारत के आदिवासी समुदायों के लिए ज़मीन केवल संपत्ति नहीं, बल्कि पहचान, संस्कृति और आस्था का केंद्र है। ज़मीन खोना उनके अस्तित्व के मिटने जैसा है। ऐसे में यह घटना केवल प्रशासनिक लापरवाही की कहानी नहीं, बल्कि उस असमान समाज का आईना है जहाँ सबसे हाशिए पर खड़े लोग अपनी बुनियादी हक़ के लिए भी गिड़गिड़ाने को मजबूर हैं।
श्योपुर की यह घटना पूरे देश के लिए चेतावनी है कि अगर शासन और न्याय व्यवस्था ने आदिवासियों के भूमि अधिकारों को गंभीरता से नहीं लिया, तो ऐसी तस्वीरें बार-बार सामने आती रहेंगी।
न्याय पाने के लिए किसी को पैरों में गिरना न पड़े — यही किसी लोकतांत्रिक समाज की असली कसौटी होनी चाहिए।





