1901 और 1941 की जातिगत जनगणना में लोहरा आदिवासी

झारखंड के इतिहास में ब्रिटिश शासन के दौरान और उसके बाद भी जातिगत जनगणना एक महत्वपूर्ण विषय रहा है। लोहरा आदिवासी समुदाय का इतिहास अन्य प्रमुख जनजातियों—मुंडा, संथाल, उरांव, खड़िया और हो—के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। झारखंड के रांची, लोहरदगा, गुमला, सिमडेगा, लातेहार और खूंटी जिलों में निवास करने वाले लोहरा आदिवासियों की पहचान उनके जीवन-यापन, भाषा, बोली और वंशानुगत विशेषताओं के आधार पर अन्य आदिवासी समुदायों से मिलती-जुलती रही है।

लोहरा आदिवासी और अन्य समुदायों का संबंध

झारखंड के जातिगत इतिहास में कमार, कर्मकार, मढैया, बढ़ई, लुहार और सदलोहार समुदायों का भी उल्लेख मिलता है, जिन्हें सदान निवासी के रूप में पहचाना जाता है। मुंडा, संथाल, उरांव, खड़िया और हो समुदाय इन सदानों को “दिक्कू” (बाहरी) कहकर संबोधित करते थे। ऐतिहासिक रूप से, लोहरा आदिवासियों का दैनिक जीवन अन्य आदिवासी समुदायों के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा रहा है, और उनकी परंपराओं, रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की परंपरा सदियों से चलती आ रही है।

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जातिगत पहचान और आरक्षण विवाद

झारखंड में सदान बहुसंख्यक समुदायों में अहीर, कुम्हार, तेली, ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, लोहार, कमार, कर्मकार, बढ़ई, मढैया और कुरमी प्रमुख हैं। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में, विशेष रूप से उन इलाकों में जिन्हें अनुसूचित क्षेत्र घोषित किया गया है, वहां सदान जातियों के कमार, कर्मकार, मढैया, बढ़ई, लुहार और सदलोहार समुदाय भी निवास करते हैं। ब्रिटिश काल की जातिगत जनगणना में ये सभी समुदाय हिंदू धर्म के अंतर्गत दर्ज किए गए थे।

आज, कमार, कर्मकार, मढैया, बढ़ई, लुहार और सदलोहार जातियां लोहरा आदिवासियों के नाम पर आरक्षण का लाभ लेना चाहती हैं। इन समुदायों का पारंपरिक पेशा लोहरा आदिवासियों के समान होने के कारण वे स्वयं को लोहरा जनजाति के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि कमार (कर्मकार लोहार) को अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की श्रेणी में रखा गया है, और इन्हें अनुसूचित जनजाति (ST) के अधिकार नहीं दिए जा सकते।

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जातिगत पहचान और आरक्षण का यह विषय झारखंड की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है। लोहरा आदिवासी समुदाय अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है, जबकि सदान जातियां आरक्षण की श्रेणी में शामिल होने के प्रयास में हैं। यह ऐतिहासिक और कानूनी पहलुओं से जटिल विषय है, जिस पर व्यापक चर्चा और अनुसंधान की आवश्यकता है।

(नोट: लेखक दिलेश्वर मिस्त्री, पेशे से मूर्तिकार हैं और झारखंड के लोहरा जनजातियों से जुड़े विषयों पर लिखते हैं। यह लेख उनके निजी विचारों पर आधारित है।)

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