दलाई लामा से जब यह सवाल पूछा जाता है कि यदि करुणा बौद्ध धर्म का मूल सिद्धांत है, तो फिर वे स्वयं मांसाहार क्यों करते हैं, तो वे इसका उत्तर बड़े स्पष्ट और तार्किक ढंग से देते हैं। उनका उत्तर केवल व्यक्तिगत पसंद तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह तिब्बती संस्कृति, परंपरा, भूगोल और बौद्ध शिक्षाओं के व्यापक संदर्भ में आता है। इस विषय पर चर्चा करने से पहले यह समझना आवश्यक है कि तिब्बत का भौगोलिक और पारिस्थितिकीय परिदृश्य कैसा है और वहाँ के लोग कैसे जीवित रहते हैं।
१. तिब्बत की जलवायु और पारंपरिक भोजन
दलाई लामा बताते हैं कि तिब्बत का पारंपरिक भोजन मांस पर आधारित है क्योंकि वहाँ का वातावरण अत्यधिक ठंडा और बंजर है। उनकी जन्मभूमि, अमदो, एक ऊँचाई पर स्थित पहाड़ी क्षेत्र है, जहाँ खेती करना लगभग असंभव है। यहाँ की कठोर जलवायु के कारण बहुत कम प्रकार की फसलें उगाई जा सकती हैं। स्थानीय लोग जौ की खेती करते हैं, जिसे तिब्बती भाषा में “त्सम्पा” कहा जाता है, लेकिन यह उनकी जरूरतों को पूरी तरह से नहीं पूरा कर पाती। ऐसे में, तिब्बती खानपान में याक के मांस, मक्खन और दुग्ध उत्पादों की प्रमुखता रही है।
तिब्बती खानपान केवल जीविका के लिए है, न कि स्वाद के लिए। यहाँ के पशुपालक अपने पशुओं का मांस, चमड़ा और ऊन व्यापार के लिए भी उपयोग करते हैं। इस प्रकार, तिब्बत की सामाजिक-आर्थिक संरचना इस पारंपरिक जीवनशैली पर निर्भर करती है।
२. बुद्ध का उपदेश और मांसाहार
दलाई लामा अपने मांसाहार के पीछे एक धार्मिक तर्क भी प्रस्तुत करते हैं। वे बताते हैं कि बुद्ध ने भी यह कहा था कि यदि कोई आपको भोजन के रूप में कुछ देता है, तो उसे आभारपूर्वक स्वीकार करना चाहिए। लेकिन, जानवरों को केवल स्वाद, लालच या व्यक्तिगत संतोष के लिए मारना उचित नहीं है।
बौद्ध धर्म में “अहिंसा” और “करुणा” के सिद्धांत महत्वपूर्ण माने जाते हैं, लेकिन बौद्ध ग्रंथों में ऐसा कोई कठोर नियम नहीं है जो मांसाहार को पूरी तरह से निषिद्ध करता हो। महायान बौद्ध परंपरा में यह कहा गया है कि भिक्षु को भोजन का चयन करने का अधिकार नहीं होता, बल्कि उसे जो भी अर्पित किया जाता है, उसे ग्रहण करना चाहिए। यदि उसे शाकाहारी भोजन दिया जाता है तो वह उसे खाएगा, और यदि मांस दिया जाता है तो उसे भी बिना किसी लोभ के स्वीकार करना चाहिए।
३. व्यक्तिगत आहार और स्वास्थ्य कारण
दलाई लामा स्पष्ट करते हैं कि वे हर समय मांस नहीं खाते, बल्कि उनके कुछ ही भोजन में मांस होता है, और वह भी केवल स्वास्थ्य कारणों से। उनके चिकित्सकों ने उन्हें मांस खाने की सलाह दी है क्योंकि उनकी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए यह आवश्यक है। वास्तव में, १९६० के दशक में उन्होंने पूरी तरह शाकाहारी बनने का प्रयास किया था, लेकिन इससे उनकी तबीयत बिगड़ गई और डॉक्टरों ने उन्हें फिर से मांसाहार अपनाने की सलाह दी।
४. भिक्षु जीवन और भोजन का दृष्टिकोण
दलाई लामा स्वयं को एक साधारण बौद्ध भिक्षु मानते हैं। बौद्ध भिक्षु अपने लिए भोजन नहीं चुनते, बल्कि जो भी भिक्षा में प्राप्त होता है, उसी को ग्रहण करते हैं। तिब्बती बौद्ध परंपरा में भोजन को केवल पोषण और अस्तित्व के लिए आवश्यक वस्तु माना जाता है, न कि इंद्रिय सुख के लिए। इसलिए, जब वे मांस खाते हैं, तो यह किसी लोभ या स्वाद के लिए नहीं होता, बल्कि केवल जीविका के लिए होता है।
बौद्ध परंपरा में भोजन ग्रहण करने से पहले प्रार्थना करने की परंपरा है। इस प्रार्थना में न केवल उस भोजन के लिए आभार व्यक्त किया जाता है, बल्कि उन सभी किसानों, रसोइयों और श्रमिकों के प्रति भी कृतज्ञता प्रकट की जाती है, जिन्होंने भोजन को उपलब्ध कराने में योगदान दिया। इसके साथ ही, यह भी प्रार्थना की जाती है कि हर जीवित प्राणी को भोजन प्राप्त हो।
दलाई लामा के मांसाहार को समझने के लिए हमें तिब्बती संस्कृति, जलवायु, पारंपरिक खानपान और बौद्ध धर्म की व्याख्याओं को ध्यान में रखना चाहिए। उनका मांस खाना न तो स्वाद के लिए है और न ही किसी हिंसक प्रवृत्ति का संकेत है, बल्कि यह उनके स्वास्थ्य, पारंपरिक आहार और भिक्षु जीवन के नियमों का पालन करने से संबंधित है।
शाकाहार और मांसाहार की बहस में यह महत्वपूर्ण है कि हम किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले संबंधित संदर्भों को पूरी तरह समझें। दलाई लामा का दृष्टिकोण इस बात को दर्शाता है कि नैतिकता और व्यवहारिकता में संतुलन बनाए रखना आवश्यक है।
नोट: इस लेख के मूल लेखक तेनज़िंग नामधक हैं, जो स्वयं एक बौद्ध हैं और अब पूरी तरह से वीगन (किसी भी प्रकार के पशु उत्पादों का उपयोग नहीं करने वाले) बन चुके हैं।