लक्ष्मण नायक: स्वतंत्रता संग्राम के अमर जननायक

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में असंख्य नायकों ने अपने प्राणों की आहुति दी, जिनमें से कुछ की कहानियां इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों से अंकित हैं, तो कुछ की गाथाएं जनमानस में लोककथाओं के रूप में जीवित हैं। ऐसा ही एक नाम है लक्ष्मण नायक का, जिन्हें “मलकानगिरी का गांधी” कहा जाता है। ओडिशा के कोरापुट जिले के टेंटुलिगुमा गांव में जन्मे इस भूमिया जनजाति के सपूत ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ न केवल अपने समुदाय, बल्कि समस्त देशवासियों के लिए एक मिसाल कायम की।

प्रारंभिक जीवन और प्रेरणा

लक्ष्मण नायक का जन्म 22 नवंबर 1899 को एक साधारण परिवार में हुआ था। उनके पिता पदलम नायक जेपोर क्षेत्र के स्थानीय सरदार के अधीन “मुस्तदार” के रूप में कार्य करते थे, जो गाँव में कर संग्रह और राजा के प्रतिनिधि की जिम्मेदारी निभाते थे। उस दौर में जनजातीय समुदायों को अंग्रेजों और उनके सहयोगियों द्वारा भारी शोषण का सामना करना पड़ता था। लक्ष्मण नायक ने अपने आसपास के इस अन्याय को बचपन से ही देखा और समझा। महात्मा गांधी के अहिंसा और स्वदेशी के सिद्धांतों ने उन्हें गहरे प्रभावित किया, और वे इन विचारों को अपने जीवन में अपनाने के लिए प्रेरित हुए।

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स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

लक्ष्मण नायक का स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय योगदान तब सामने आया, जब 1942 में महात्मा गांधी के आह्वान पर शुरू हुए “भारत छोड़ो आंदोलन” ने देश भर में जोश भर दिया। लक्ष्मण नायक ने अपने क्षेत्र में इस आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया। उन्होंने लोगों को संगठित किया और अंग्रेजी शासन के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रतिरोध का रास्ता अपनाया। 21 अगस्त 1942 को उन्होंने कोरापुट के मैथिली पुलिस स्टेशन पर तिरंगा फहराने के लिए एक विशाल जुलूस का नेतृत्व किया। यह जुलूस पूरी तरह शांतिपूर्ण था, लेकिन अंग्रेजी पुलिस ने इसे बर्दाश्त नहीं किया। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की, जिसमें कई लोग मारे गए। लक्ष्मण नायक पर भी क्रूर हमला हुआ—उन्हें पीटा गया और उनकी मूंछें तक जला दी गईं। इस हिंसक कार्रवाई ने उनके संकल्प को और मजबूत किया।

बलिदान की राह

लक्ष्मण नायक को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर एक पुलिसकर्मी की हत्या का झूठा आरोप लगाया गया। ब्रिटिश शासन ने उन्हें दबाने के लिए एक नकली मुकदमा चलाया और फांसी की सजा सुनाई। 29 मार्च 1943 को बेरहामपुर जेल में उनकी फांसी दे दी गई। अपने अंतिम क्षणों में भी लक्ष्मण नायक अडिग रहे। उन्होंने अपने समुदाय और देश के लिए यह बलिदान दिया, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ स्वतंत्रता की हवा में सांस ले सकें।

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विरासत और प्रेरणा

लक्ष्मण नायक का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। आज भी ओडिशा के कोरापुट और मलकानगिरी क्षेत्रों में उनकी कहानी लोगों के बीच जीवित है। वे न केवल एक स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि जनजातीय समुदायों के लिए एक प्रतीक भी थे, जिन्होंने शोषण और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई। उनके जीवन से यह प्रेरणा मिलती है कि साहस और सत्य के मार्ग पर चलकर कोई भी व्यक्ति इतिहास बदल सकता है।

लक्ष्मण नायक की गाथा हमें याद दिलाती है कि स्वतंत्रता का मूल्य कितना बड़ा है और इसे हासिल करने के लिए कितने अनाम नायकों ने अपने प्राण न्यौछावर किए। वे एक अमर बलिदानी हैं, जिनका नाम भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सुनहरे अध्याय में हमेशा चमकता रहेगा।

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