भारत का स्वतंत्रता संग्राम केवल 1857 की लड़ाई या बाद के राष्ट्रीय आंदोलनों तक सीमित नहीं था। इसकी जड़ें बहुत गहरी थीं, जिनमें आदिवासी और स्थानीय शासक अपने-अपने ढंग से अंग्रेजी सत्ता का विरोध कर रहे थे। इन भूले-बिसरे नायकों में शंकर शाह मरावी और उनके पुत्र रघुनाथ शाह मरावी का नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। दोनों ने 1857 की क्रांति के समय मध्यभारत (आज का मध्यप्रदेश) में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया। उनकी शहादत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गौरवशाली परंपरा का हिस्सा है, जिसे मुख्यधारा इतिहास में पर्याप्त स्थान नहीं मिल पाया।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
शंकर शाह मरावी गोंडवाना साम्राज्य के वंशज थे। गोंड राजाओं ने लंबे समय तक मध्यभारत, खासकर जबलपुर और उसके आसपास के क्षेत्रों पर शासन किया।
वे जबलपुर में ब्रिटिश सत्ता के अधीन एक जागीरदार के रूप में रहते थे, किंतु अंग्रेजों की नीतियों से असंतुष्ट थे।
1857 का संग्राम जब उत्तर भारत में फैला तो उसकी गूँज जबलपुर और मंडला तक पहुँची। यहाँ के शासक वर्ग, किसान और आदिवासी अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने लगे।
शंकर शाह मरावी का जीवन
शंकर शाह को गोंड राजा संग्राम शाह की वंशावली में गिना जाता है।
वे राजघराने के उत्तराधिकारी भले न रहे हों, किंतु स्थानीय स्तर पर उनके पास प्रभाव और सम्मान था।
उनका जीवन संघर्षपूर्ण था; अंग्रेजों ने उनकी सत्ता और अधिकारों को सीमित कर दिया था।
शंकर शाह केवल राजपरिवार के सदस्य ही नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी नेता थे जिन्होंने जनता के दुःख-दर्द को समझा और अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का आह्वान किया।
रघुनाथ शाह मरावी का जीवन
रघुनाथ शाह, शंकर शाह के पुत्र थे।
युवावस्था में ही उन्होंने अपने पिता के साथ विद्रोह में भागीदारी की।
रघुनाथ शाह का व्यक्तित्व साहसी और क्रांतिकारी था। उन्होंने स्थानीय सैनिकों, किसानों और आदिवासियों को अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध एकजुट करने का प्रयास किया।
वे अपने पिता की तरह स्वतंत्रता को सर्वोपरि मानते थे।
1857 का विद्रोह और जबलपुर
1857 की क्रांति दिल्ली, कानपुर और झाँसी जैसे क्षेत्रों से उठकर मध्यप्रदेश तक पहुँची। जबलपुर छावनी और मंडला जैसे क्षेत्र रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण थे।
यहाँ के सैनिकों में असंतोष था।
किसानों और आदिवासियों में कर और जबरन श्रम की नीतियों को लेकर गहरा असंतोष था।
इस असंतोष को संगठित रूप देने का कार्य शंकर शाह और रघुनाथ शाह ने किया।
साजिश का आरोप
अंग्रेजों को सूचना मिली कि शंकर शाह और रघुनाथ शाह गुप्त रूप से क्रांति की योजना बना रहे हैं।
कहा जाता है कि उनके पास कुछ देशभक्ति के गीत और कविताएँ मिलीं जिनमें अंग्रेजों को देश से बाहर करने का आह्वान था।
अंग्रेजों ने इन गीतों को राजद्रोह मानते हुए कार्रवाई की।
गिरफ्तारी और ….
शंकर शाह और रघुनाथ शाह को 1857 में अंग्रेजों ने जबलपुर में गिरफ्तार किया।
उन पर मुकदमा चलाया गया, किंतु मुकदमा एक दिखावा मात्र था।
अंग्रेजों ने उन्हें कठोर दंड देने का निर्णय लिया ताकि स्थानीय जनता में भय व्याप्त हो सके।
दोनों को 18 सितंबर 1857 को जबलपुर में तोप के मुँह पर बाँधकर विस्फोट से उड़ा दिया गया।
यह एक अत्यंत क्रूर और अमानवीय दंड था, जिसे देखकर जनता स्तब्ध रह गई।
शहादत का प्रभाव
शंकर शाह और रघुनाथ शाह की शहादत ने जबलपुर और आसपास के क्षेत्रों में विद्रोह की चिंगारी को और भड़का दिया।
स्थानीय सैनिकों और जनता ने इसे अन्यायपूर्ण हत्या माना।
हालांकि अंग्रेजों ने विद्रोह को दबा दिया, किंतु उनकी शहादत स्वतंत्रता आंदोलन की प्रेरणा बन गई।
साहित्यिक और सांस्कृतिक योगदान
शंकर शाह कवि भी थे। उनकी रचनाओं में स्वतंत्रता की गूँज सुनाई देती है।
उनकी कविताओं में देशभक्ति, स्वतंत्रता और अंग्रेजों के विरोध की भावनाएँ झलकती हैं।
ये रचनाएँ तत्कालीन जनमानस को प्रेरित करने का साधन बनीं।
वर्तमान में स्मरण
मध्यप्रदेश सरकार ने जबलपुर में उनकी स्मृति को संजोने के लिए शंकर शाह-रघुनाथ शाह विश्वविद्यालय की स्थापना की है।
जबलपुर रेलवे स्टेशन पर उनकी प्रतिमा स्थापित है।
स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को मान्यता देने के लिए कई स्मारक और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
आदिवासी समाज में उन्हें आज भी बलिदानी नायक और गौरव का प्रतीक माना जाता है।
शंकर शाह मरावी और रघुनाथ शाह मरावी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे नायक थे जिन्होंने सत्ता और सुविधाओं से ऊपर उठकर स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी। उनकी शहादत ने यह संदेश दिया कि स्वतंत्रता का सपना केवल बड़े शहरों या प्रमुख राजघरानों तक सीमित नहीं था, बल्कि गाँव-गाँव, आदिवासी इलाकों और गोंडवाना की धरती तक फैला हुआ था।
उनकी तोप से उड़ाकर की गई हत्या अंग्रेजी शासन की बर्बरता का प्रतीक है, किंतु साथ ही यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अमर गाथा का हिस्सा भी है। आज आवश्यकता है कि शंकर शाह और रघुनाथ शाह के योगदान को राष्ट्रीय स्तर पर उचित स्थान दिया जाए, ताकि नई पीढ़ी उनके बलिदान से प्रेरणा ले सके।