झारखंड की धरती केवल कोयले और जंगलों की नहीं, बल्कि असंख्य जीवंत परंपराओं, आस्थाओं और सांस्कृतिक चेतना की धरती है। इन्हीं पहाड़ियों और वनों के बीच बसा है — लुगुबुरु घांटाबाड़ी धोरोम गाढ़, जो संताल समाज के लिए धर्म, संस्कृति और पहचान का सबसे पवित्र स्थल माना जाता है।
यह केवल एक तीर्थ नहीं, बल्कि आदिवासी आत्मसम्मान का प्रतीक पर्वत है — जहाँ माना जाता है कि हजारों वर्ष पूर्व लुगु बाबा की अध्यक्षता में संताल धर्म और सामाजिक संविधान की रचना हुई थी।
ललपनिया (जिला बोकारो, झारखंड) की हरियाली से आच्छादित पहाड़ियों के बीच यह स्थल आज भी उतना ही जीवंत है जितना सदियों पहले रहा होगा। यहाँ आने वाले श्रद्धालु कहते हैं —
“यह केवल पहाड़ नहीं, हमारी आत्मा की आवाज़ है।”
भौगोलिक स्थिति और पहुँच
लुगुबुरु घांटाबाड़ी धोरोम गाढ़, झारखंड राज्य के बोकारो जिले के ललपनिया क्षेत्र में स्थित है, जो जिला मुख्यालय से लगभग 80 किलोमीटर दूर है। यह स्थान गोमिया प्रखंड के कोदवाटांड़ गांव के समीप स्थित है।
यहाँ तक पहुँचने के लिए बोकारो स्टील सिटी, रामगढ़ या हज़ारीबाग से सड़क मार्ग उपलब्ध है। ललपनिया बाजार से लगभग 4–5 किलोमीटर की पहाड़ी चढ़ाई के बाद यह स्थल आता है।
चारों ओर घने जंगल, चट्टानी रास्ते, और पहाड़ की गोद में बसी यह जगह किसी रहस्यमय तीर्थ जैसी प्रतीत होती है — जहाँ आधुनिकता की रफ्तार धीमी पड़ जाती है और समय जैसे ठहर जाता है।
नाम का अर्थ और सांकेतिकता
‘लुगु’ का अर्थ होता है — देवता या श्रद्धेय शक्ति,
‘बुरु’ का अर्थ है — पर्वत या ऊँचाई,
और ‘घांटाबाड़ी धोरोम गाढ़’ का अर्थ है — धार्मिक, सांस्कृतिक और नैतिक स्थल।
इस प्रकार, “लुगुबुरु घांटाबाड़ी धोरोम गाढ़” का शाब्दिक अर्थ है —
“श्रद्धेय देवता का धार्मिक पर्वत।”
यह केवल नाम नहीं, बल्कि संताल समाज के विश्वास और सांस्कृतिक विरासत का जीवंत प्रतीक है।
पौराणिक और सांस्कृतिक मान्यता
संताली लोककथाओं, गीतों और दंतकथाओं के अनुसार, हजारों वर्ष पूर्व “दरबार चट्टानी” नामक स्थान पर लुगु बाबा (जिन्हें संताल समाज के सर्वोच्च गुरु और देवता माना जाता है) की अध्यक्षता में एक भव्य सभा हुई थी।
इस सभा में संताल समुदाय के बुजुर्ग, पुजारी, ओझा, मांझी और परगणा उपस्थित हुए थे।
कहा जाता है कि यह सभा 12 वर्षों तक लगातार चली, जहाँ उन्होंने समाज के हर पहलू पर विचार किया —
जन्म, विवाह, मृत्यु, कृषि, त्योहार, पूजा-पद्धति, और समाज की एकता बनाए रखने के नियम बनाए गए।
लोकगीतों में कहा गया है —
“गेलबार सिइंया, गेलबार इंदा” — यानी बारह दिन और बारह रातों तक यह बैठक चली,
लेकिन कुछ परंपराओं में इसे 12 वर्षों की सभा भी बताया गया है।
इस दौरान वहाँ उपस्थित जनजातीय समाज ने खेती की, धान कूटा, अनाज तैयार किया — और उसी से संबंधित ओखल के निशान आज भी “दरबार चट्टानी” पर देखे जा सकते हैं। ये ओखल जैसे गढ्ढे समय के गर्भ से आज भी गवाही देते हैं कि यह धरती कभी उनकी सभ्यता का केंद्र रही होगी।
लुगु बाबा और मरांग बुरु की उपासना
लुगुबुरु पहाड़ी केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि संताली देवताओं का केंद्र भी है।
यहाँ सात प्रमुख देवी-देवताओं की पूजा की जाती है —
- मरांग बुरु – सर्वोच्च देवता, सृष्टि के रचयिता।
- लुगु बुरु – धर्म के अधिपति, समाज के मार्गदर्शक।
- लुगु आयो – माता स्वरूपा देवी, जो करुणा और जीवन का प्रतीक हैं।
- घांटाबाड़ी गो बाबा – जो स्थल की रक्षा करते हैं।
- कुड़ीकीन बुरु
- कपसा बाबा
- बीरा गोसाईं
“पुनाय थान” नामक स्थान पर इन सभी देवताओं की पूजा की जाती है।
हर पूजा का आरंभ मरांग बुरु के नाम से होता है और समापन लुगुबुरु की आराधना से किया जाता है।
यह पूजा-विधान किसी मंदिर के भीतर नहीं, बल्कि खुले आकाश के नीचे — प्रकृति की गोद में होता है। यही आदिवासी धर्म की सबसे बड़ी विशेषता है — वे ईश्वर को पत्थर या मूर्ति में नहीं, बल्कि धरती, जल, हवा और वृक्षों में देखते हैं।
सांस्कृतिक विरासत और संविधान का प्रतीक
लुगुबुरु को संताल समाज का धार्मिक संविधान स्थल भी कहा जाता है।
यहाँ लिए गए निर्णयों ने आने वाली पीढ़ियों के लिए समाज की नैतिक दिशा तय की।
संताली समाज आज भी “मांझी परगना व्यवस्था” के तहत चलता है —
जहाँ किसी भी विवाद का निर्णय गांव के बुजुर्गों और पारंपरिक संस्थाओं द्वारा किया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि इस सामाजिक ढांचे की नींव लुगुबुरु सभा में ही रखी गई थी।
इस स्थल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह धर्म और कानून दोनों का संगम है।
यह केवल पूजा की जगह नहीं, बल्कि एक ऐसी जगह है जहाँ समाज ने खुद के लिए नियम बनाए — बिना किसी राजा, पंडित या बाहरी सत्ता के।
बारह वर्षों की महान सभा — एक सांस्कृतिक संविधान का जन्म
संताली परंपरा के अनुसार, जब-जब समाज में भ्रम, अशांति या विभाजन उत्पन्न हुआ, तब लुगु बाबा ने सभी जनों को इस पहाड़ी पर बुलाया।
वहाँ उन्होंने कहा —
“हमारे धर्म का आधार प्रकृति है, और हमारे जीवन का उद्देश्य उसके साथ संतुलन बनाना है।”
सभा के अंत में उन्होंने “धोरोम” (धर्म) शब्द का अर्थ समझाया —
कि यह किसी मजहबी संकीर्णता का नहीं, बल्कि जीवन की आचारसंहिता का प्रतीक है।
इसी सभा में तय हुआ कि —
संताल लोग जंगल, नदी, पहाड़ की रक्षा करेंगे।
वे मरांग बुरु, लुगु आयो और प्रकृति के प्रति आस्था रखेंगे।
झूठ, चोरी, लालच और हिंसा से दूर रहेंगे।
समुदाय के भीतर समानता और सहयोग बना रहेगा।
इसलिए लुगुबुरु केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि सामाजिक दर्शन का जन्मस्थान है।
लुगुबुरु मेला — आदिवासी एकता का पर्व
हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लुगुबुरु में विशाल धार्मिक और सांस्कृतिक सम्मेलन आयोजित होता है।
इसे “लुगुबुरु महोत्सव” कहा जाता है।
देशभर — विशेष रूप से झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम, त्रिपुरा, और नेपाल-बांग्लादेश तक से संताल श्रद्धालु यहाँ पहुँचते हैं।
इस अवसर पर हजारों की संख्या में भक्त जन पारंपरिक पोशाक, ढोल-मांदर, नाच-गीत के साथ लुगुबुरु पहाड़ी पर चढ़ाई करते हैं।
पूरे वातावरण में “Hul Johar!” (संताली अभिवादन) की गूंज सुनाई देती है।
इस मेला का महत्व केवल पूजा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्मिलन है —
जहाँ संताल समाज अपनी भाषा, नृत्य, गीत और पहचान को पुनर्जीवित करता है।
सामाजिक और धार्मिक प्रतीकात्मकता
लुगुबुरु को “संताली समाज का तीर्थ” कहा जाता है,
लेकिन यह केवल धर्म का नहीं, सामाजिक एकता और पर्यावरण चेतना का भी केंद्र है।
यहाँ पूजा केवल देवताओं की नहीं, बल्कि धरती और जीवन के संतुलन की होती है।
हर श्रद्धालु पहाड़ी की मिट्टी को माथे पर लगाकर कहता है —
“हम धरती के पुत्र हैं, और धरती ही हमारी माता है।”
इसी सोच ने संताल समाज को हजारों वर्षों तक टिकाए रखा —
बिना किसी धर्मग्रंथ, बिना किसी मंदिर या पादरी के,
सिर्फ परंपरा, गीत, और लोककथाओं के सहारे।
पर्यटन और अध्ययन के लिए महत्व
आज लुगुबुरु न केवल धार्मिक बल्कि सांस्कृतिक पर्यटन और शोध-अध्ययन का प्रमुख केंद्र बन चुका है।
कई विश्वविद्यालयों और सांस्कृतिक संस्थानों ने इसे आदिवासी सभ्यता का जीवंत स्थल घोषित किया है।
झारखंड पर्यटन विभाग ने इसे आधिकारिक रूप से “धार्मिक एवं सांस्कृतिक पर्यटन स्थल” के रूप में सूचीबद्ध किया है।
यहाँ आने वाले पर्यटक आदिवासी संस्कृति, प्राकृतिक सौंदर्य और समुदाय की जीवनशैली का अनुभव कर सकते हैं।
आधुनिक चुनौतियाँ और संरक्षण की ज़रूरत
भले ही लुगुबुरु अब आदिवासी धार्मिक पहचान का प्रतीक बन चुका है,
लेकिन इसकी मूल भावना को बचाए रखना एक चुनौती है।
- बढ़ते पर्यटन और व्यावसायीकरण से इसकी प्राकृतिक शांति प्रभावित हो रही है।
- कुछ बाहरी शक्तियाँ इसे “मंदिर” का रूप देने की कोशिश करती हैं,
जबकि यह स्थल हमेशा से प्रकृति-पूजा और खुली आस्था का केंद्र रहा है। - भाषाई और सांस्कृतिक अस्मिता भी संकट में है —
क्योंकि युवा पीढ़ी शहरीकरण के साथ अपनी परंपराओं से दूर हो रही है।
इसलिए ज़रूरी है कि लुगुबुरु को केवल “धार्मिक स्थल” नहीं, बल्कि जीवित संस्कृति के प्रतीक के रूप में संरक्षित किया जाए।
संवेदनात्मक अंत
लुगुबुरु के रास्ते पर चलते हुए जब पहाड़ की हवा चेहरे से टकराती है,
तो ऐसा लगता है मानो लुगु बाबा अब भी फुसफुसाकर कह रहे हों —
“अपने धर्म को मत भूलो,
धर्म वही है जो प्रकृति के साथ चलता है।”
यह स्थल याद दिलाता है कि सच्चा धर्म न मंदिर में है, न शास्त्र में,
बल्कि उस धरती में है जिसने हमें जीवन दिया।
लुगुबुरु घांटाबाड़ी धोरोम गाढ़ संताल समाज के लिए केवल तीर्थ नहीं,
बल्कि अस्तित्व की जड़, संविधान की मिट्टी,
और आदिवासी अस्मिता की धड़कन है।
लुगुबुरु घांटाबाड़ी धोरोम गाढ़ यह साबित करता है कि
आदिवासी धर्म कोई अतीत की कथा नहीं,
बल्कि आज भी जीवंत और प्रासंगिक है।
जहाँ बाकी समाज धर्म को ग्रंथों में खोजते हैं,
वहीं संताल लोग उसे प्रकृति की हर सांस में महसूस करते हैं।
यह स्थल न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है,
बल्कि भारतीय सभ्यता की जड़ों की याद दिलाने वाला भी है —
कि इस धरती पर पहली बार मनुष्य ने प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व का दर्शन यहीं सीखा था।





