त्रिपुरा के आदिवासी इलाकों की राजनीति एक बार फिर गर्मा गई है। टिपरा मोथा के संस्थापक और आदिवासी समुदाय के लोकप्रिय नेता प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा ने राज्य सरकार को सीधी चेतावनी दी है। उन्होंने कहा कि अगर जनजातीय स्वायत्त जिला परिषद (TTADC) द्वारा पारित 37 बिलों को सरकार मंजूरी नहीं देती, तो वे अगले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट का रुख करेंगे।
प्रद्योत का आरोप है कि राज्यपाल और सरकार इन बिलों को जानबूझकर ठंडे बस्ते में डाल रहे हैं। इन बिलों में ज़मीन के अधिकार, स्थानीय प्रशासन और आदिवासी विकास जैसे अहम मुद्दे शामिल हैं। अगर ये कानून बन जाते हैं, तो TTADC क्षेत्रों में सत्ता और संसाधनों का संतुलन बदलेगा — और यही कारण है कि प्रद्योत लगातार इनके लागू होने की मांग कर रहे हैं।
बीजेपी–टिपरा मोथा गठबंधन में बढ़ती दरार
राज्य में बीजेपी और टिपरा मोथा की गठबंधन सरकार है, लेकिन दोनों दलों के रिश्ते लगातार तनावपूर्ण होते जा रहे हैं। प्रद्योत जब भी आदिवासी हितों की बात करते हैं, तो वे बीजेपी के खिलाफ बयान देने से भी नहीं हिचकते, भले ही इससे गठबंधन पर असर पड़े।
आदिवासी इलाकों में टिपरा मोथा की पकड़ बेहद मजबूत है। अगर इन 37 बिलों को मंजूरी मिल जाती है, तो आदिवासी क्षेत्रों की स्वायत्तता बढ़ेगी और वहीं बीजेपी की राजनीतिक पकड़ कमजोर पड़ सकती है। यही वजह है कि यह मुद्दा सरकार के लिए राजनीतिक रूप से संवेदनशील बन गया है।
त्रिपुरा में आदिवासी क्षेत्र राज्य के दो-तिहाई हिस्से में फैले हैं और करीब 31% आबादी आदिवासियों की है। ऐसे में बीजेपी को सत्ता बनाए रखने के लिए बंगाली बहुल और आदिवासी समाज — दोनों के बीच संतुलन साधना जरूरी है।
“त्रिपुरा का मालिक कौन?” विवाद और उसकी गूंज
अगस्त के आख़िरी और सितंबर की शुरुआत में त्रिपुरा में अमरा बंगाली पार्टी के समर्थकों ने अगरतला में रैली के दौरान नारे लगाए —
“त्रिपुरा का मालिक कौन है? बंगाली हैं और कौन?”
इन नारों ने आदिवासी समाज में आक्रोश फैला दिया। इसे आदिवासी अस्मिता पर सीधा हमला माना गया। करीब दस दिन बाद, दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रद्योत माणिक्य ने इन नारों का जवाब देते हुए कहा कि त्रिपुरा का असली स्वामित्व आदिवासियों का है।
इस घटना के बाद बंगाली–आदिवासी तनाव और बढ़ गया। बीजेपी इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रही — क्योंकि अगर पार्टी बंगाली नारों का विरोध करती तो बंगाली वोटबैंक नाराज़ होता, और अगर समर्थन करती तो आदिवासी इलाकों में उसकी छवि गिरती। इस तरह बीजेपी दोनों तरफ से दबाव में आ गई।
समाजपतियों और धर्मांतरण पर प्रद्योत का बयान
इसी मौके पर प्रद्योत ने समाजपतियों (आदिवासी परंपरागत मुखियाओं) का मुद्दा भी उठाया। हाल ही में राज्य सरकार ने समाजपतियों का मानदेय ₹2000 से बढ़ाकर ₹5000 किया था। प्रद्योत ने कहा कि यह पैसा उनकी स्वतंत्रता और पारंपरिक संस्था को कमजोर कर रहा है।
उन्होंने समाजपतियों से एकजुट होने की अपील की और कहा कि अगर वे बंटे रहेंगे तो आदिवासी समाज अपने अधिकारों की लड़ाई नहीं जीत पाएगा।
धर्मांतरण के मुद्दे पर भी उन्होंने स्पष्ट कहा —
“कृपया धर्मांतरण बंद करें और इसे समर्थन देना छोड़ दें, वरना हमारी पहचान जल्द ही मिट जाएगी।”
उनका यह बयान आदिवासी समाज में पहचान और परंपरा को लेकर नई बहस छेड़ गया है।
आगे क्या?
अब पूरा मामला इस पर टिक गया है कि राज्य सरकार इन 37 बिलों को मंजूरी देती है या नहीं।
अगर सरकार ने इन्हें पास नहीं किया और प्रद्योत सचमुच सुप्रीम कोर्ट चले गए, तो यह त्रिपुरा की राजनीति में बड़ा भूचाल ला सकता है।
एक तरफ आदिवासी इलाकों में टिपरा मोथा का प्रभाव और मजबूत होगा, वहीं दूसरी ओर बीजेपी की स्थिति और कमजोर पड़ सकती है।
स्पष्ट है — त्रिपुरा में आने वाले हफ्तों में आदिवासी स्वायत्तता बनाम राजनीतिक नियंत्रण की जंग और तेज़ होने वाली है।